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तृतीय परिच्छेद
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भावार्थ-एकद्रियकै मन, वचन विना च्यार पर्याप्ति है, विकलत्रय असौनीकै पांच पर्याप्ति है, पंचेन्द्रिय सैनी के वचन मन सहित छह हैं, ऐसा जानना ॥७॥
एकाक्षाः स्थावरा जीवाः, पंचधा परिकीर्तिताः । पृथिवी सलिलं तेजो, मारुतं च वनस्पतिः ॥८॥
अर्थ-पृथ्वी १, जल २, अग्नि ३, पवन ४, अर वनस्पति ५ ऐसे पंचेन्द्रिय स्थावर जीव पांच प्रकार कहे हैं ॥८॥
भेदास्तत्र त्रयः पृथ्व्याः, कायकायिकतद्भवाः । निर्मुक्तस्वोकृतागामि, रूपा एव परेष्वपि ॥६॥
अर्थ-तहां पृथ्वीके भेद तीन हैं-पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक, पृथ्वीजीव, ऐौं । तहां जीवर्ने शरीर त्यागि दिया सो तो पृथ्वीकाय है, अर जो शरीर जीवन ग्रहण किया सो पृथ्वीकायिक है, अर जो जीव पृथ्वीकायिक होनेवाला है सो अन्तरालमें पृथ्वी जीव है याही प्रकार जलादिविर्षे भी जानना॥६॥
मता द्वित्रिचतुःपंचहषीकास्त्रसकायिकाः । पंचाक्षा द्विविधास्तत्र, संजयसंज्ञिविकल्पतः ॥१०॥
अर्थ-द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेन्द्रिय जीव हैं ते त्रसकायिक कहे हैं । तहां पंचेन्द्रिय हैं ते सांज्ञी असांगी भेद करि दोय प्रकार हैं ॥१०॥
शिक्षोपदेशनालापग्राहिणः संजिनो मताः । प्रवृत्तमानसप्राणा, विपरीतास्त्वसंज्ञिनः ॥११॥
अर्थ-शिक्षा उपदेश अलाप इनके ग्रहण करनेवाले, प्रवर्त्या है मन जिनक, ऐसे जीव हैं ते संज्ञी कहे हैं। बहुरि विपरीत हैं ते असंज्ञी हैं ऐसा जानना ॥११॥
स्पर्वनं रसनं घ्राणं, चक्षुः श्रोत्रमितींद्रियम् । तस्य स्पर्मो रसो गन्धो, रूपं शब्दश्च गोचरः ॥१२॥