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________________ तृतीय परिच्छेद [ ४३ विपरीताभिनिवेश तजि, भजि निर्मल श्रद्धान । याके धारक अमितगति, लहत सकल कल्यान । ऐसें श्री अमितगति आचार्यकृत श्रावकाचारविर्षे द्वितीय परिच्छेद समाप्त भया । तृतीय परिच्छेद आगें सम्यग्दर्शनके विषय जे जीवादिक परार्थ तिनिका वर्णन करें हैं जीवाजीवादितत्वानि, ज्ञातव्यानि मनीषिणा। श्रद्धानं कुर्वता तेषु, सम्यग्दर्शनधारिणा ॥१॥ प्रर्थ-सम्यग्दर्शनका धारनेवाला अर तीन जीवादिकनिविर्षे श्रद्धानकौं करता ऐसा जो पंडितपुरुष ताकरि जीव अजीव आदि तत्व हैं ते जानने योग्य हैं। मावार्थ--सम्यग्दर्शनकी निर्मलताके अर्थजीवादि पदार्थ विस्तारसहित जानने योग्य हैं ॥१॥ तत्र जीवा द्विधा ज्ञेया, मुक्तसंसारिभेदतः । अनादिनिधनाः सर्वे, ज्ञानदर्शन लक्षणाः ॥२॥ अर्थ-तहां जीव हैं ते मुक्त अर संसारी भेदकरि दोय प्रकार जानना। के से हैं जीव आदि, अन्त रहित हैं अर सर्व ही ज्ञानदर्शन लक्षण जिनके ऐसे हैं। भावार्थ-द्रव्याथिक नय करि जीव अनादिनिधन है अर एक द्रियतें लगाय सिद्ध भगवानपर्यन्त सामान्य ज्ञानदर्शन बिना कोई भी जीव नाहीं। ऐसा जानना ॥२॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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