SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -द्वितीय परिच्छेद न वक्तव्यमिति प्राज्ञैः, कदाचन यतो भवी । कर्म भुक्त बहु स्तोकं, स्वीकरोति विसंशयं ॥१६॥ , अन्यथैकेन जोवेन सर्वेषां कर्मणां ग्रहे । सर्वेषां जायतेऽन्येषां न कथं मुक्तिसंगतिः ॥ २० ॥ समस्तानां तथैकेन, पुद्गजानां ग्रहेंगिना । अनंतानंत कालेन न बन्धः सांतरः कथम् ॥२१॥ , अर्थ - जो मिथ्यादृष्टि बहुत कर्म बांध है अर थोड़ा कर्म भोगे है सा संसारवनके दुःखनितें मोक्ष कैसें पावैगा ||१७|| अर्थ – जैसे दिनदिन विषे धान्य की अञ्जली खातें अर खारी ग्रहण करते कैं धान्यका बीतना कदेहूनौ होय ॥ १८ ॥ #: ऐसें कोऊ कहै तासें आचार्य कहें है- बुद्धिवाननि करि " न वक्तव्यं" कहिए ऐसा कहना कदाचित् योग्य नाहीं, जातें संसारी जीव निश्चयतें बहुत कर्म भोगे है अर थोड़ा अङ्गीकार कर है ॥ १६॥ — २५ जो ऐसे नहीं होय तौ एक जीव करि सर्व कर्मनिका ग्रहण होतेस ते बाकी और सर्व जीवनिकें मुक्ति की प्राप्ति कैसें न होय ॥२०॥ बहुरि तैसें ही एक जीवकरि सर्व पुद्गलनिका ग्रहण न होतें जीवनिकें अनन्तानन्त कालकरि अन्तरसहित बन्ध कैसें न होय ऐसा उत्तर है ॥२१॥ सस्यानीवोषरे क्षेत्रे, निक्षिप्तानि कदाचन । न व्रतानि प्ररोहंति, जीवे मिथ्यात्ववासिते ॥ २२ ॥ अर्थ- जैसे ऊपर भूमिविषे- बोए भए धान्य कदाचित् न उपजें हैं तैसें मिथ्यात्वकरि वासित जो जीव ताविषे व्रत नाहीं होय हैं ॥ २२ ॥ मिथ्यात्वेनानुबिद्धस्य, शल्येनेव महीयसा । समस्तापनिधानेन जायते निर्वृतिः कुतः ॥२३॥ 1
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy