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________________ चतुर्दश परिच्छेद [ ३५५ क्षांतिर्दिवमार्जवं निगदितं सत्यं शुचित्य, तपस्त्यागोऽकिंचनता मुमुक्षुपतिभिर्बावतं संयमः। धर्मस्येति जिनोदितस्य दशधा निर्दूषणं, कुर्वाणो भवयन्त्रणाविरहितो मुक्तांगनां श्लिष्यति ॥१॥ अर्थ-क्रोधकषायके अभावरूप क्षमा अर मानके अभावरूप मार्दव अर मायाके अभावरूप आर्जव अर सत्य वचन अर लोभके अभावरूप शुचिपना अर अनशनादि तप अर शक्तिसारू त्याग अर निष्परिग्रहता अर ब्रह्मचर्य अर संयम ऐसें दशप्रकार लक्षण जिनधर्मका मुनीश्वरनि करि कह्या ताहि जो आचरण करै है सो संसारबंधनकरि रहित भया सन्ता मुवितस्त्रीकौं आलिंग है ॥१॥ ऐसे धर्मानुप्रेक्षा कही । आगें अधिकारकौं संकोचे है योऽनुप्रेक्षा द्वादशापीति नित्यं, भव्यो भक्त्या ध्यायति ध्यानशीलः । हेयादेयाशेषतत्त्वावबोधी, सिद्धि सद्यो याति स ध्वस्तकर्मा ॥२॥ अर्थ-या प्रकार जो पुरुष द्वादश अनुप्रेक्षानिकौं ध्यान रूप है स्वभाव जाका ऐसा भव्य भक्ति करि नित्य ही ध्यावें है विचार है सो हेय उपादेय तत्वका जाननेवाला शीघ्र ही मुक्तिपदकौं प्राप्त होय है कैसा है सो नाश किये हैं कर्म जानें ऐसा है । भावार्थ-जो द्वादश अनुप्रेक्षा भावै है सो मुक्तिकौं प्राप्त होय है ऐसा भावनाका फल दिखाया है ।।२।। सूचिततत्त्वं ध्वस्तकुतत्वं, भवभयविदलनदभयमकथनम् । यो हृदि धत्त पापनिवृत्ते, शुचिरुचिचिरं जिनपतिवचनम् ॥३॥ केवल लोकालोकितलोकोऽमितगतित्तिपतिसुरपतिमहिताम् । याति स सिद्धि पावनशुद्धि, सकलितकलिमलगुणमणिसहिताम् ॥४॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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