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चतुर्दश परिच्छेद
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ऐसें बोधि भावना कही। आगे-धर्म भावनाका वर्णन करें हैं
निरुपमनिरवद्यशर्ममूलं, हितमभिपूजितमस्तसर्वदोषम् । भजति जिननिवेदितं स धर्म,
भवति जनः सुखभाजनं सदा यः ॥७॥ अर्थ-जो पुरुष जिनभाषित धर्मकौं सेवे है सो सदा सुखका भाजन होय है, कैसा है जिनभाषित धर्म उपमा रहित अर पाप रहित सुखका मूल है। बहरि हितस्वरूप है अर सबनिकरि पूजित है अर नष्ट भये हैं पूर्वापर विरुद्ध आदि दोष जाके ऐसा है ॥७॥
व्यपनयति भवं दुरन्तदुःखं, वितरति मुक्तिपदं निरामयं यः । भवति कृतधिया त्रिधा विधेयः,
सकलसमीहितसाधनः स धर्मः ॥७६॥ अर्थपूर्ण है बुद्धि जाकी ऐसे पुरुष करि सो धर्म मन वचन कायकरि करना योग्य हैं, कैसा है धर्म सकल वांछित वस्तुका साधन है जातें समस्त इष्ट पदार्थ मिले हैं। वहुरि जो धर्म-दूर है, अन्त जाका ऐसा है दुःख जामैं ऐसा जो संसार ताहि दूर करै है, अर निर्दोष मुक्तिपदकौं देय है ॥७६॥
मनुजभवमवाप्य यो न धर्म, विषयसुखाकुलितः करोति पथ्यम् । मणिकनकनगं समेत्य मन्ये,
पिपतिषति स्फुटमेष जीवितार्थी ॥७७॥ अर्थ-मनुष्य जन्मकौं पायकै विषयनिसे सुखनि विर्षे आकुलित जो पुरुष हितरूप धर्मकौं न करै है सो मैं ऐसा मानहूँ कि यह रत्न सुवर्णके पर्वतकौं प्राप्त होय करि प्रगटपने जीवनेका अर्थी पढ़नेकौं इच्छै है, मनुष्यभव पाय करि तौं धर्म करना ही योग्य है ॥७७॥