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________________ ३५०] श्री अमितगति श्रावकाचार भावार्थ-इस लोकमैं या जीवकौं सुखदुःखके कारण अनेकवार प्राप्त होय है तिनमैं हर्ष विषाद करना वृथा है, ऐसा विचारना ॥६३॥ बांधवा भवति शत्रवोऽपि वा, कोऽत्र कस्य निजकार्यवजितः । बंधुरेष मम शत्रुरेष वा, शेमुषीमिति करोति मोहितः ॥६४॥ अर्थ-इस लोकमैं कार्य करि रहित कौन किसीका भाई बन्धु वा शत्रु होय है ? कोई भी न होय है, तातें यहु मेरा भाई है, यह मेरा बैरी है ऐसी बुद्धिकौं मोही जीव करै है यहु बुद्धि मिथ्या है ऐसा जानना ॥६४॥ देवमर्त्यपशुनारकेष्वयं, दुःखजालकलितेष्वनारतम् । कामकोपमदलोभवासितो, वर्त्तते भवविपर्ययाधुलः ॥६॥ अर्थ-दुःखनिके समूह करि भरे जे देव मनुष्य तिर्यच नारकी तिन विष यह काम, क्रोध, मद, लोभ इत्यादि विभावनि करि वासित जीव निरन्तर प्रवत्र्त है। कैसा है यह संसार विषं विपर्यय बुद्धि करि आकुल है, संसारमैं तो इष्टानिष्ट वस्तु नाहीं अर यहु काहूकौं इष्ट मानें है काहूकौं अनिष्ट मानें है तातें दुःखी है ॥६५॥ जन्मत्तिनिवहो वियोज्यते, योज्यते स्वकृतकर्मभिः पुनः । शुष्कपत्रनिकरः परस्परं, मारुतैरिव विभीमवृत्तिमिः । ६६।। ___ अर्थ-आप करि किए जे कर्म तिनकरि संसारी जीवनिका समूह कह परस्पर वियोगरूप कीजिए है कहं संयोगरूप कीजिए है । जैसें उग्रवेगसहित जो पवन तिनकरि पत्तानिका समूह कहू मिलाइए है कहूं बिछुराइए है सूखे "संयोग वियोगका कारण कर्म है कोऊ परवस्तु नाहीं" ऐसा विचारना ॥६६॥ एष वेष्टयति भोगकांक्षया, कोशकार इव लालया स्वयम् । कर्मवीजभवया विनिंद्यया, धोरमृत्युभयदानदक्षया ॥६७॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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