________________
चतुदश परिच्छेद
[ ३४३
अर्थ--जसैं समुद्रमैं नाव विषं विस्ताररूप छिद्रनि करि जल प्रवेश करै है संसार-समुद्र विर्षे मन, वचन, कायके विकल्प जालतें नानाप्रकार कर्म आश्रवें हैं ताकरि जीव दुःख करि निवारण करने योग्य जलदी डूबनेकौं प्राप्त होय हैं ॥४१॥
चित्रेण कर्मपवनेन नियोज्यमान, प्राणिप्लवो बहुविधोऽसुखभांडपूर्णः । संसारसागरमसारमलभ्यपारं,
भूरिभ्रमं भ्रमति कालमनंतमानम ॥४२॥ अर्थ-तीव्र मंदादि भेदनिसहित नानाप्रकार जो कर्मपवन ताकरि प्ररया भया यह जीवरूप नौका संसार-समुद्र विर्षे अनंतकाल भ्रमै है। कैसा है जीवरूपी नावनाना प्रकार दुःखरूप भांडनि करि भरया है। बहरि कैसा है संसार-समुद्र असार है जामैं आत्महित नाहीं पावने योग्य है पार जाका ऐसा अपार है अर बहुत हैं भौंर जा विर्षे ऐसा है ॥४२॥
कर्मादधाति यदयं भविनः कषायः, संसारदुःखमविधाय न तद्वयपैति । यबंधनं विदधाति विपक्षवर्ग,
स्तन्नाम कस्य विरचय्य सुखं प्रयाति ॥४३॥ अर्थ-जो यह कषायभाव जीवकै कर्मबन्ध करै है सो कर्मवन्ध दुःख दिये विना नाश नाहीं होय है। जैसे वैरीनिका समूह जो बन्धन बाँध है सो बन्ध कौनकौं सुख करिक जाय है, दुःख करिक ही जाय है।
भावार्थ-कषायकरि बंध्या जो कर्म ताका छूटना महाकठिन है तामै मुख्य आश्रवका कारण जो कषाय सो करना योग्य नाहीं ॥४३॥
भेदाः सुखासुखविधानविधौ समर्था, ये कर्मणो विविधबंधरसा भवति । जन्तोः शुभाशुभमनः परिणामजन्या, स्तै म्यते भववने चिरमेष भीगे ॥४४॥