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द्वादशम परिच्छेद
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विज्ञायेति महादोषं तं दोव्यति नोत्तमाः । जानानाः पावकोष्णत्वं प्रविशंमि कथं बुधाः ॥६२॥
अर्थ-या प्रकार जूवाकौं महादोषरूप जान करि उत्तम पुरुष नाहीं खेले है जैसे अग्निका उष्णपना जाणते सन्ते पंडित जन हैं ते अग्निमें प्रवेश कैसे करें, अपितु नाहीं करै हैं ॥६२॥
आगे-वेश्याका निषेध करें हैं:वितनोति दृशो रागं या वात्येव रजोमयो । विध्वंसयति या लोकं शर्वरीव तमोमयी ॥६३॥ या स्वीकरोति सर्वस्वं चौरीवार्थपरायणा । छलेन याति गृह्णाति शाकिनीवामिषप्रिया ॥६४॥ वह्निज्वालेव या स्पृष्टा संतापयति सर्वतः । शुनीव कुरुते चाटु दानतो याऽति कश्मला ॥६५॥ विमोहयति या चित्तं मदिरेव निषेविता। .
सा हेया दूरतो वैश्या शीलालंकारवारिणा ॥६६॥
अर्थ जो वैश्या नेत्रनि विर्षे जैसे धूलि सहित पवन राग विस्तारै तैसें राग विस्तार है बहरि या लोकका जैसे अन्धकारमयी राग नाश कर है तैसें नाश करै है ॥६३॥ वहुरि जो वेश्या धनमैं तत्पर चोरी करनेवालाकी ज्यौं सर्व धनकौं गृहण कर है। बहुरि जो छलकरि मांस है त्रिय जाकौं ऐसी शाकिनिकी ज्यौं मनुष्यकौं अतिशय करि अंगीकार करै है ॥६४॥ बहुरि जो वैश्या अग्निकी ज्वाला समान स्पर्शी भई सर्व तरफतें संताप उपजावै है । बहुरि धनके दवात जो अत्यन्त पापिनी कुत्तीकी ज्यौं खुशामद विस्तारें है ॥६५॥ बहुरि जो मदिराकी ज्यों सेई गई चित्तकौं मोह उपजावै है सो वेश्या शीलरूप आभूषणका घारी जो पुरुष ताकरि दूरतें त्यागनी योग्य है ॥६६॥
सत्यं शौचं शमं शीलं संयम नियनं यम । प्रविशंति बहिर्मुक्ता विटाः पण्यांगनागृहे ॥६७॥