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एकादश परिच्छेद
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त्यक्ता शर्मप्रदं पात्रममात्रं स्वीकरोति यः । स कालकूटमादत्त मुक्ता पीयूषमस्तधीः ॥६६
अर्थ-सुखदायक पात्रकौं छोडिक जो अपात्रकौं अंगीकार कर है सो निर्बुद्धि अमृतकौं छोडिक कालकूट विषकौं ग्रहण करै है ॥६६॥
पात्रापात्रविभागेन मिथ्यादृष्टेरिदं फलम् । उदितं दानजं प्राज्यं सम्यग्दष्टेर्वदाम्यतः ॥१०॥
अर्थ-यह दानतें उपज्या फल पात्र अपात्रके भेदकरि मिथ्यादृष्टीकौं कह्या बहुरि इस पीछे सम्यग्दृष्टीके दानतें उपज्या जो महाफल ताहि कहूं हूँ ॥१०॥
दानं त्रिविधदात्राय सम्यग्दृष्टिर्यथागमम् । ददानो लभते याच्या कल्याणानां परम्पराम् ॥१०१२॥
अर्थ-सम्यग्दृष्टी जीव है सो तीन प्रकार पात्रनिके अथि शास्त्रोक्त दान देता सन्ता मांगनेयोग्य कल्याणनिकी परम्पराकौं पावै है ॥१०१॥
पात्राय विधिना दत्त्वा दानं मृत्त्वा समाधिना । अच्युतांतेषु कल्पेषु जायन्त शुद्धदृष्टयः ॥१०२॥
अर्थ-पात्रके अथि दान देकरि समाधि सहित मरकें सम्यग्दृष्टी जीव है ते अच्युत पर्यंत स्वर्गनि विर्षे उपजै हैं ॥१०२॥
उत्पद्योत्पादशय्यायां देहोद्योतितपुष्कराः ।
सुप्तोत्थिता इव क्षिप्रमुत्तिष्ठति दिवौकसः ॥१०३॥
अर्थ-तहां स्वर्ग विर्षे उत्पादशय्या विर्षे उपजके देव हैं ते जैसें सोयकरि उठे तैसे उठे हैं, कैसे हैं देव देहकरि उद्योतरूप किया है आकाश जिननें ऐसे हैं ॥१०३॥
निषण्णैस्तत्र शय्यायां तैरीक्ष्यन्त समन्ततः । निकाया देवदेवीनां रचितांजलिकुङ मलाः ॥१०४॥