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प्रथम परिच्छेद
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रागादिदोषा न भवंति येषां, न संत्यसत्यानि वचांसि तेषां । हेतुव्यपाये न हि जायमानं, विलोक्यते किंचन कार्यमायः ॥४१॥
अर्थ-जिनके रागद्वेष नहीं हैं तिनके वचन असत्य नहीं हैं, जाते कारणके नाश भये संतें किछु कार्य बड़े पुरुषनिकरि न विलोकिए है ।
भावार्थ- जैसें माटी आदि कारणके अभाव होते हैं घटादिक कार्य न देखिए है तैसें रागादिक हैं ते असत्य वचनके कारण हैं। रागादि विना असत्य वचन न होय हैं ऐसा जानना ।। ४१।। विना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो, जानाति धर्म न विचक्षणोऽपि । निरीक्षते कुत्र पदार्थजातं,विना प्रकाशं शुभलोचनोति ॥४२॥
अर्थ-चतुर पुरुष भी गुणनिके समुद्र जे गुरु तिन विना धर्मकौं न जान है । जैसें शुभ नेत्र सहित पुरुष भी प्रकाश विना पदार्थनके समूहकों कहूं देखै है ? अपितु नाही देखै है ॥४२॥ ये ज्ञानिनश्चारुचरित्रभाजा, ग्राह्या गुरूणां वचनेन तेषाम् । सन्देहमत्यस्य बुधेन धर्मों, विकल्पनीयं वचनं परेषाम् ॥४३॥
अर्थ-जे ज्ञानवान सुन्दर चारित्रके धरनेवाले हैं तिन गुरुनिके वचन करि सन्देह छोड़ि पंडित पुरुषकरि धर्म ग्रहण करना योग्य है। बहुरि ऐसे गुरूनि विना औरनिका वचन विकल्पनीय कहिये सन्देह योग्य है ॥४३॥ भीतैर्यथा वंचनतः सुवर्ण, प्रताडनच्छेदनतापघर्षेः। तथा तपःसंयमशीलबोधैः परीक्षणीयो गुरुशब्दबोधेः ॥४४॥
अर्थ-जैसें ठिगायवेतें भयभीत जे पुरुष तिनकरि सुवर्ण जो है सो कूटना छेदना तपावना घिसना इनकरि वा गुरुवे शब्दके देवाकरि परखना योग्य है तैसें तप संयम शील निर्लोभपना इनि करि तथा गुरुके वचन निके ज्ञाननि करि धर्म परखना योग्य है। इहां "गुरुशब्दबाधैः" इस पदका अर्थ सुवर्णपक्षमैं गुरुवे भारी शब्दके ज्ञान करि ऐसा लगाय लेना ॥४४॥