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________________ २४० ] श्री अमितगति श्रावकाचार अनेक जन्मार्जितकर्मक सिन, स्तपोनिधेस्तत्र पवित्रवारिणा । स सादरः क्षालयते पदद्वयं विमुक्तये मुक्तिसुखाभिलाषिणः ॥४२ प्रसूनगन्धाक्षतदीपकादिभि, प्रपूज्य मत्यमरवर्गपूजितम् । मुदा मुमुक्षोः पदपंकजद्वय, सः वंदते मस्तकपाणिकुङ मलः ॥४३॥ मनो वचः कायविशुद्धिमंजसा, विधाय विध्वस्तमनोभवद्विषः । चतुविधाहारमहार्य निश्चयो, ददाति सः प्रासुकमात्मकल्पितम् ॥४४॥ अर्थ - कर्या है उज्जवल धोवती दुपट्टा सहित पवित्र शरीर जानें, बहुरि अपने घर के द्वारमें प्राप्त भया आकुलता रहित ऐसा भया सन्ता मुनिराज अंगीकार करे है, कैसा है सो नमस्कार होऊ, हे मुनीन्द्र इहां तिष्ठौ ऐसे कर्या है शब्द जानें ||४०|| बहुरि ता पीछे प्रकार भले किया है संस्कार जाका । भावार्थ - दया सहित लगा है चौका आदि जहां ऐसे अतिशय करि प्रशंसा योग्य घर के भीतर तपस्वीकौं विधानतें स्थापित करें, कैसा है तपस्वी वांछित अनेक फलका देनेवाला है, अर दूषण रहित रत्नकी ज्यों भले प्रकार दुर्लभ हैं ||३१|| अनेक जन्मकरि उपार्जे जे कर्म तिनका काटनेवाला ऐसा जो तपोधन मुनि ताके तहां पवित्र जल करि सो आदर सहित चरण युगलकौं मुक्तिके अर्थ प्रक्षालन करें है, कैसे हैं मुनि मुक्तिके सुखकी है अभिलाषा जाकै ॥ ४२ ॥ बहुरि मनुष्य अर देवनके समूहकरि पूजित जो मोक्षाभिलाषी मुनिका चरणयुगल ताहि पुष्प गन्ध अक्षत दीपक इत्यादि द्रव्यनि करि हर्ष सहित वंदे है, अर मस्तक से लगाए हैं हस्तकमल
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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