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________________ नवम परिच्छेद [२२१ अर्थ-दाता है सो तो दोषकौं न जानता संता धर्मबुद्धिकरि सर्व दान देय है अर जो ता कुदानकौं अंगीकार करै हैं सो सर्वथा पात्र नाहीं ॥७॥ वहूनि तानि दानानि, विधेयैषा न शेमुषी । विपद्यतेतरां प्राणी, भूरिभिर्भक्षितविषैः ॥७१॥ अर्थ-पूर्वे कहे ते बहुत प्रकार दान हैं ऐसी यह वाणी कहना योग्य नाहीं, जातें बहुत खाये भये जे विष तिनकरि जीव है सो अतिशयकरि नाश कीजिए है। भावार्थ-पहले कहे जे बहत कूदान ते दान हैं ऐसे कहना भी योग्य नाहीं बहुत कुदान किये पाप ही है जैसे बहुत विष खाये प्राणीका विशेषते मरण ही है तैसें ॥७१॥ अल्पं जिनमतं दानं, वदतीमं न कोविदाः । पीयूषेणोपभुक्त न, किं नाल्पेनापि जीव्यते ॥७२॥ अर्थ-यह जिनमतका कहा दान है सो अल्प है ऐसे पंडितजन न कहैं हैं, जातै खाया भया थोड़ा भी अमृत करि कहा न जिवाइए है जिवाइए ही है। भावार्थ- कोई कहै कि जैनमतका दान तो थोड़ा है जातें कहा भला होय ताकौं आचार्यनै कह्या है जो सुदान थोड़ा भी महापुण्य उपजावे है, जैसे अमृत थोड़ा है सो भी जिवाव है तैसै जिनभाषित दान थोड़ा न जानना ॥७२॥ ग्रहीतुः कुरुते सोख्यं दानस्तेरखिलैर्यतः । पुण्यभागी ततो दाता नेदं वचनमंचितम् ॥७३॥ आपाते लभ्यते सौख्यं विपाके दुःखमुल्वणम् । अपथ्यरिव तैर्दानैर्दु जरैनिंदितैः ॥७४॥ आपाते सुखदैः पुण्यमंते दुःखवितारिभिः । भूमिदानादिभिर्दत्तनं किं पाप लैरिव ॥७॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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