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________________ २१८] श्री अमितगति श्रावकाचार - या धर्मवनकुठारी, पातकवसतिस्तपोदया चौरी। वैरायासासूया विषादशो श्रमक्षोणी ॥५७॥ यस्यां सक्ता जीवा दुःखतमान्नोत्तरंति भवजलधेः। क: कन्यायां तस्यां, दत्तायां विद्यते धर्मः ॥१८॥ अर्थ-जो कन्या धर्मवनके काटनेकौं कुल्हारी समान अर पापकी वसती अर तपश्चरण दया की चौरनेवाली अर वैर प्रयास ईर्षा शोक खेद इनकी भूमिका है ॥५७॥ अर जा विर्षे आसक्त जीव हैं ते अतिशय करि दुःखस्वरूप जो संसारसमुद्र तातें न उतरें हैं तिस कन्याकौं दिये संतें कहा धर्म होय है ? पाप ही होय हैं । भावार्थ- कन्यादानतें पूर्वोक्त पापनिका संतान बढ़े है तातें पाप ही है धर्म नाहीं, ऐसा जानना ॥५८॥ सर्वारम्भकरं ये वीवाहं, कारयन्ति धर्माय । ते तरुखण्डविवृद्धय, क्षिपंति वह्नि ज्वलज्ज्वालम् ॥५६॥ अर्थ--जो पुरुष सर्व हिंसादिक आरम्भका करनेवाला जो विवाह ताहि धर्मके अर्थ करावै है ते वृक्षनके वनकौं बढ़ावनेके अर्थि जाज्वल्यमान है ज्वाला जाकी ऐसी अग्निकौं खेप हैं। भावार्थ-जैसैं अग्नितें वन बड़े नाही उलटा जल जाय तैसें विवाहु कराये धर्म नाहीं धर्मका नाश ही है ॥५६॥ यः संक्रांती ग्रहणे वारे, वित्तं ददाति मूढमतिः। सम्यकवनं छित्त्वा, मिथ्यात्ववनं वपत्येषः ॥६०॥ अर्थ-जो मूढबुद्धी पुरुष संक्रांति विर्षे आदित्यवारादि वार विर्षे धनकौं देय है सो सम्यक्त वनकौं छेदिक मिथ्यात्व बनकौं बोवै है ॥६०॥ ये ददते मृततृप्तये बहुधा, दानानि नूनमस्तधियः। ' पल्लवयितुं तरं ते, भस्मीभूतं निषिचंति ॥६१॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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