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________________ श्री अमितगति श्रावकाचार २१२ ] रात्रि विषै योगीश्वरनिकों चित्तविषै धारें है, सो इस पुरुष करि निश्चयतें मुनि के अर्थ दान दिया । भावार्थ - जो सदा मुनीश्वरनिकी भक्तिका परिणाम राखे है ताकै मुनीनका मिलना न होतें भी भावनाकी शुद्धितातें दानका पुण्य होय है ॥३१॥ " यः सामान्येन साधूनां दानं दातुं प्रवर्त्तते । त्रिकालगोचरास्तेन योगिनो भोजिताः स्तुताः ॥३२॥ 1 अर्थ - जो सामान्यपने करि साधूनके दान देनेकों प्रवत्त है ता पुरुषकरि भूत भविष्यत वर्तमान कालके सर्व योगीश्वर जिमाए अर स्तुतिगोचर किये । भावार्थ - जाके मुनिमात्रके दानमें हर्ष है प्रकृति है सर्व ही मुनीनिकी भक्ति होनेतें सर्वकौं दान दिया अर सर्वहीकी स्तुति करी, ऐसा जानना ॥ ३२॥ , दत्ते दूरेऽपि यो गत्वा विमृश्य व्रतशालिनः । सः स्वयं गृहमायाते कथं दत्ते न योगिनि ॥३३॥ अर्थ - जो दूर जायकरि भो व्रतीनकौं हेर करि दान देय है सो आप ही योगीश्वरनिकों घर आये सन्ते दान कैसें न देय है ? देय ही है ||३३|| , रुद्रव्याद्रव्ययोमध्ये यः पात्रं प्राप्य भक्तितः । दनानः कथ्यते दाता, न दाता भक्तिवजितः ||३४|| अर्थ - एक तो द्रव्य सहित पुरुष अर एक द्रव्य रहित पुरुष इन दोउनिके मध्य जो पात्रकौं पायकै भक्ति दान देय है सो दाता कहिये है अर भक्तिरहित है सो दाता न कहिए हैं, ऐसा जानना || ३४॥ पात्रे ददाति योऽकाले, तस्य दानं निरर्थकम् । क्षेत्र ऽप्युप्तं विना कालं कुत्र बीजं प्ररोहति ॥३५॥ ,
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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