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श्री अमितगति श्रावकाचार -
जनसंचारनिर्मुक्तो, ग्राह्यो देशो निराकुलः । नासन्नो नातिदूरस्थः, सर्वोपद्रवर्जितः ॥४३॥
अर्थ-एकांत होय, अर प्रासुक होय, सेव्य कहिए वतीनके सेवने योग्य होय, अर समाधानका वढ़ावनेवाला होय, अर देव कहिए जिन चैत्यादिक तिनकी सूधी दृष्टिके पड़नेकरि रहित होय।।
भावार्थ-प्रतिमादिकके सन्मुख न होय, अर जिन चैत्यादिकके दाहना होय ॥४२॥ अर मनुष्यनिके आने जानेकरि रहित होय अर न अति निकट न अति दूर होय, सर्व उपद्रव करि वर्जित होय, ऐसा निराकूल क्षेत्र ग्रहण करना योग्य है।
भावार्थ-ऐसे क्षेत्रमैं सामायिक करै ॥४३॥ आगे जा बैठे ताका स्वरूप कहै हैंस्थेयोऽछिद्रं सुखस्पर्श, विशब्दकमजतुकम् । तृणकाष्ठादिकं ग्राह्यं विनयस्योपवृहकम् ॥४४।
अर्थ-थिर होय, छिद्र रहित होय, सुखरूप होय स्पर्श जाका ऐसा होय, शब्द रहित होय, जीवरहित होय, वैराग्यका बढावनेवाला होय, ऐसा तृणकाष्ठादिकका साथस ग्रहण करना योग्य है ॥४४॥ . आगे आसनका स्वरूप कहैं हैं
जंघाया जंघयाश्लेषे, समभागे प्रकीतितम् । .. पद्मासनं सुखाधायि, सुसाध्यं सकलैर्जनैः ॥४५॥
' अर्थ-समभाग विर्षे जंघाकरि जंघाका आश्लेष कहिए गाढा चिपटना होय सो सुखका आधार समस्त जननि करि सुखतें साधने योग्य सा पद्मासन कह्या है ॥४५॥
बुधरुषर्यधोभागे, जंघयोरुभयोरपि ।
समस्तयोः कृते ज्ञेयं पर्यकासनमासनम् ॥४६॥
अर्थ-सर्व दोऊ जंघानको ऊपर अर अधोभागमैं करे संते पंडितजननिकरि पर्यकासन नामका आसन जानने योग्य है ॥४६॥