SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ श्री अमितगति श्रावकाचार - जनसंचारनिर्मुक्तो, ग्राह्यो देशो निराकुलः । नासन्नो नातिदूरस्थः, सर्वोपद्रवर्जितः ॥४३॥ अर्थ-एकांत होय, अर प्रासुक होय, सेव्य कहिए वतीनके सेवने योग्य होय, अर समाधानका वढ़ावनेवाला होय, अर देव कहिए जिन चैत्यादिक तिनकी सूधी दृष्टिके पड़नेकरि रहित होय।। भावार्थ-प्रतिमादिकके सन्मुख न होय, अर जिन चैत्यादिकके दाहना होय ॥४२॥ अर मनुष्यनिके आने जानेकरि रहित होय अर न अति निकट न अति दूर होय, सर्व उपद्रव करि वर्जित होय, ऐसा निराकूल क्षेत्र ग्रहण करना योग्य है। भावार्थ-ऐसे क्षेत्रमैं सामायिक करै ॥४३॥ आगे जा बैठे ताका स्वरूप कहै हैंस्थेयोऽछिद्रं सुखस्पर्श, विशब्दकमजतुकम् । तृणकाष्ठादिकं ग्राह्यं विनयस्योपवृहकम् ॥४४। अर्थ-थिर होय, छिद्र रहित होय, सुखरूप होय स्पर्श जाका ऐसा होय, शब्द रहित होय, जीवरहित होय, वैराग्यका बढावनेवाला होय, ऐसा तृणकाष्ठादिकका साथस ग्रहण करना योग्य है ॥४४॥ . आगे आसनका स्वरूप कहैं हैं जंघाया जंघयाश्लेषे, समभागे प्रकीतितम् । .. पद्मासनं सुखाधायि, सुसाध्यं सकलैर्जनैः ॥४५॥ ' अर्थ-समभाग विर्षे जंघाकरि जंघाका आश्लेष कहिए गाढा चिपटना होय सो सुखका आधार समस्त जननि करि सुखतें साधने योग्य सा पद्मासन कह्या है ॥४५॥ बुधरुषर्यधोभागे, जंघयोरुभयोरपि । समस्तयोः कृते ज्ञेयं पर्यकासनमासनम् ॥४६॥ अर्थ-सर्व दोऊ जंघानको ऊपर अर अधोभागमैं करे संते पंडितजननिकरि पर्यकासन नामका आसन जानने योग्य है ॥४६॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy