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प्रथम परिच्छेद
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कषायनकी सेनाकौं शस्त्रनितें नाशकरि अपनी सिद्धिकौं साधें हैं तैसें साघु कषायनिक क्षमादिभावनितें नाशकारे परम निराकुल अवस्थाकौं साधें हैं ॥५॥
विभूषितोऽह्वाय यया शरीरे, विमुक्तिकांतां विदधाति वश्याम् । सा दर्शनज्ञानचरित्रभूषा, चित्त मदीये स्थिरतामुपैतु ॥६॥
श्रथं - सो दर्शन ज्ञान चारित्ररूप भूषण मेरे चित्तविषें सदा स्थिरताक प्राप्त होहु । जिस आभूषणकरि भूषित जो जीव है सो शीघ्र ही मुक्तिस्त्री वश करें है ।
भावाथ - जैसे सुन्दर शृङ्गारसहित पुरुषके स्त्री वशी होय है तैसें दर्शन ज्ञानसहित आत्माके ज्ञानानंदस्वरूप अवस्था प्राप्त होय है || ६ || मातेव या शास्ति हितानि पुंसो, रजः क्षिपतीदधती सुखानि । समस्तशास्त्रार्थविचारदक्षा,
सरस्वती सा तनुतां मति मे ॥७॥
अर्थ - सो सरस्वती मेरी बुद्धिको विस्तारहु । कैसी है सरस्वती, जो पुरुषकों माताकी ज्यों हित जे कल्याणके कारण तिनहिं सिखावै है, अर रज जो अज्ञान ताहि डरावं है, अर सुखनिकौं पुष्ट करें है, अर समस्त शास्त्रनिके अर्थके विचारविषै प्रवीण है ।
मावार्थ - अनेकांतमयी जो जिनवाणी ताका नाम सरस्वती है, सो जैसे चतुर माता पुत्रकौं लौकिक हिताहितके कारण सिखावे है, अर अंगकी धूलि भार है अर सुख बढावे है । तैसें जिनवाणी मोक्षमार्गविषै हिताहित सिखाव है अर अज्ञान दूरि करे है अर ज्ञानानंद पुष्ट करें है ऐसा
जानना ॥७॥
शास्त्रांबुधेः पारमिर्यात येषां, निषेवमाणः पद्मद्मयुग्मं । गुणैः पवित्रं रवो गरिष्ठा:, कुर्वंतु निष्ठां मन ते वरिष्ठाम् ॥८॥