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श्री अमितगति श्रावकाचार
ऐसी जो लक्ष्मी अर क्षमा अर कीर्ति अर दया अर पूजा इनकौं नासकें अर जबरदस्ती घोर नरकवास विषै पटकै है ||३४||
अनन्तकालं
समवाप्य नीचां
यद्येकदा याति जनोऽयमुच्चाम् ।
तथाप्यनंता बत याति जातिरुच्चो
गुणः कोऽपि न चात्र तस्य ॥३५॥
अर्थ - जीव है सो अनन्तकाल तांई नीच जातिकौं पाय करि एक काल उच्च जातिकौं प्राप्त होय है, आचार्य कहैं हैं, बड़े खेदकी बात है तो भी जीव अनन्त जातिनकौं प्राप्त होय है । बहुरि ता जीवकै इहां ऊँचा गुण कोई भी न देखिए है ।
भावार्थ - जीव अनंतकाल निगोदादि नीचपर्यायनिमें बसे है, कदाच क्षत्रियादि उच्च कुल में उपजै है सो तहां भी अनंतवार भया तातें संसारमें ॐच गुण किछू भी न देखिए है, तातें मान करना वृथा है ऐसा
जानना ||३५||
उच्चासु नीचासु च हंत जंतोर्लब्धासु नो योनिषु वृद्धिहानी । उच्चो व नीचोऽहमपास्त बुद्धि:, स मन्यते मानपिशाचवश्यः ॥३६॥
अर्थ - ॐच जातिनकौं वा नीच जातिनकौं पाए संत जीवकी हानि वृद्धि नाहीं है, बहुरि मान पिशाचके वशीभूत अज्ञानी जीव है सो "मैं ऊँचा हूं नीचा नाहीं" ऐसा मान है ये बड़े खेद की बात है ॥ ३६ ॥
उच्चोऽपि नीचं स्वभवेक्षमाणो, नीचस्य दुःखं न किमेति घोरम् । नीचोऽपि पश्यति यः स्वमुच्चं, स सौख्यमुच्चस्य न किं प्रयाति ॥३७॥