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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ- सो विषय भोग कौनकें पंडितजन करि सेयवे योग्य होय अपितु नाहीं होय । कैसा है विषय भोग जो वर्द्ध मान भया सन्ता जैसे मेघ जलनिकौं देय है तैसे दुःखनिके सैंकड़ानिकों देय है । कैसा है मेघ विनशनशील है स्वरूप जाका सो यह भोग भी विनसनशील है बहुरि मेघ महाकीचका करनेवाला हैं । बहुरि मेघ काला है, सो यह भोग भी मलीन है ऐसा जानना ||२८||
यो वाधते शक्रममेय शक्ति, सः कस्य बाधा कुरुते न कामः । यः प्लोषते पर्वतवर्ग मग्निः समुचते कि तृणकाष्ठ राशिम् ॥ २६ ॥
अर्थ - जो काम अप्रमाण है शक्ति जाकै ऐसा जो इन्द्र ताहि पीडै है सो काम कौनके बाधा न करे है ? सर्वहीकै कर है । इहां दृष्टांत कहै है, जो अग्नि पर्वतन के समूहको जलावे है सो अग्नि कहा तृणकाष्ठ के समूहको छोड़े है, अपितु नाहीं छोडै है; ऐसा जानना ॥ २६ ॥
समीरणाशीव
विभीमरूप:,
पररंध्रवर्ती |
कोपस्वभावः श्रनात्मनीनं परिहत्त कामैर्न
याचनीयः कुटिलः स भोगः ॥३०॥
अर्थ- आपके अर्थ अहित ऐसा जो दुःख ताके त्यागने की है वांछा जिनके ऐसे पुरुषनि करि सो विषयभोग चाहना योग्य नाहीं । कैसा है भोग, सर्प समान है भयानकरूप जाका, कैसा है सर्प क्रोधरूप है स्वभाव जाका सो यह मोग भी क्रोधका अभिप्राय लिये है । बहुरि सर्प पराये विलमैं तिष्ठ है तैसें भोग भी स्त्री आदि परद्रव्यमैं वर्त्ते है, बहुरि सर्प कुटिल है तैसे भोग भी मायाचार सहित है, ऐसा जानना । ऐसें भोग निंद्य जानिकै ताके अर्थ निदान करना योग्य नाहीं ॥ ३० ॥ आगे मानका निषेध करें हैं
देवं गुरु धार्मिकमर्चनीयं, मानाकुलात्मा परिभूय भूयः । पाथेयमादाय कुकसंजालं, नीचां गतिं गच्छति नीचकर्मा ॥३१॥