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। श्रीवीतरागाय नमो नमः।
श्री अमितगति प्राचार्य विरवित
श्री अमितगति श्रावकाचार
प्रथम परिच्छेद
मंगलाचरण नापाकृतानि प्रभवंति भूयस्तमांसि यह ष्टिहराणि सद्यः । ते शाश्वतीमस्तमयानभिज्ञा,
जिनेंदवो वो वितरंतु लक्ष्मीम् ॥१॥ अर्थ-ते श्रीजिनरूप चन्द्रमा तुम्हारे शास्वती जो मोक्षलक्ष्मी ताहि विस्तारह । कैसे हैं जिनचन्द्र अस्त किये हैं अज्ञानी परवादी जिननें । बहरि जिनकरि शीघ्र ही दूरि किये सम्यक्दृष्टि के हरणेवाले मोह अन्धकार ते फेर न होय हैं ॥१॥
विभिद्य कर्माष्टक शृंखलं ये, गुणाष्टश्चर्यमुपेत्य पूतम् । प्राप्तास्त्रि तोकाशिखामणित्वं,
भवंतु सिद्ध। मम सिद्धये ते ॥२॥ प्रर्थ ते श्री भगवान मेरे सिद्धिके अर्थ होऊ। जे सिद्ध भगवान ज्ञानावरणादि अष्टकर्मरूप सांकलकू छेदि करि अर सम्यक्त्वादि अष्ट गुणरूप पवित्र ऐश्वर्यकौं प्राप्त होय तीन लोक के चूडामणिपर्नेकौं प्राप्त भये हैं ॥२॥