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श्रो अमितगति श्रावकाचार
भावार्थ--दिन वि. दोय दोय मुहर्त भोजनका त्याग भये मासमें साठि मुहर्तका त्याग होते दोय उपवास का फल होय है ॥५६॥
रोग शोककलिराटिकारिणी, राक्षसीव भयदायिनी प्रिया । कन्यका दुरितापकसंभवाः,
रोगिता इव निरन्तरापदाः ॥५७॥ देहजा व्यसनकर्मपंडिताः, पन्नगा इव वितीर्णभीतयः । निर्धनत्वमनपायि सर्वदापात्रदानमिव दत्तवृद्धिकम् ॥५॥ संकटं सतिमिरं कुटीरकं, नीचवित्तमिव रंघ्नसंकुलम् । नीचजातिकुलकर्मसंगमः, शीलशौचशमधर्मनिर्गमः ॥५६॥ व्याधगो विविधदुःखदायिनो, दुर्जना इव परापकारिणः । सर्वदोषयणपीड्यमानता, रात्रिभोजनपरस्य जायते ॥६०॥
अर्थ--रात्रि भोजन विर्षे तत्पर जो पुरुष ताकै ऐसी सामग्री होय है स। कहै हैं--राग अर शोक अर कलह अर राड़ इनकी करनेवाली अर राक्षसीकी ज्यौं भय देनेवाली स्त्री मिले है, अर महापापतें उपजा अन्तराय सहित सदा दुःख देनेवाली कन्या होय है। बहुरि दिया हं भय जिनमैं ऐसे पापकर्म विर्षे प्रवीण सपै की ज्यौं पुत्र होय है, बहुरि दई ह वृद्धि जानें ऐसा अपात्र दानकी ज्यौं निर्धनपना विनाश रहित सदा होय है।
भावार्थ--जैसें अपात्र दान निरन्तर वृद्धि कर तैसें रात्रि भोजन निर्धनपना नित्य बढ़ावै ऐसा दृष्टांत दिया ह। बहुरि छिद्रनि करि व्याप्त नीच पुरुषके वित्तकी ज्यौं संकटरूप अन्धकार रहित घर मिले हैं, अर नीच जाति कुलकर्म इनका संगम होय है, अर शील निर्लोभता समभाव धर्म इनका निर्गम होय है, अभाव होय है, अर परके बुरे करनेवाले दुर्जनकी ज्यौं दुःख देनेवाली व्याधि होय है, अर सर्व दोषनके समूहकरि पीड्यमानपना, दुखीपना होय है। ऐसे रात्रिभोजन करनेवाले के दोषनिकी उत्पत्ति होय है ।। ५७-५८-५९-६०॥