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श्री अमितगति श्रावकाचार :
निम्नगामि सलिलं निसर्गत,
स्ते नयन्ति शिखरेषु शाखिनाम् ॥५१॥ अर्थ--जे पुरुष स्थाप्या है दीपकादि प्रकाश जिन विष ऐसी रात्रिनि विर्षे भोजनको रचै है ते स्वभावतें नीचेको चलनेवाला जो जल ताहि शिखरनि विर्षे वृक्षनकौं प्राप्त करै है।
भावार्थ--इहां ऐसा है कि कोऊ कहै हम रात्रि विर्षे दीपकादि करि हिंसा निवारि लेइंगे ताकू कह्या है। रात्रि विर्षे हिंसा अनिवार्य होय है, जातें भोजनके आश्रय जीव वा दोपकादि करि और जीव अवश्य घाते जाय हैं, अर रागादिककी तीव्रता होय है, तातें रात्रि विष हिंसा अवश्य है सो निवारी न जाय । ताका दृष्टांत दिया है कि जल का स्वभाव नीचे पड़नेका है सो ऊपर चढ़े ऐसा कोई प्रकार होय सकै, ऐसा जानना ॥५१॥
सूचयन्ति सुखदायि येगिनां, रात्रिभोजनमपास्तचेतनाः । पावकोद्धतशिखाकरालितं,
ते वदन्ति फलदायि काननम् ॥५२॥ अर्थ--जे अज्ञानी रात्रि भोजन जीवनकौं सुखदायक कहैं हैंते अग्निकी उद्धत शिखा करि जल्या जो बन ताहि फलदायक कहै है, सो हाय नाही ॥५२॥
ये ब्रुवन्ति दिनरात्रिभोगयो, स्तुल्यतां रचितपुण्यपापयोः । ते प्रकाशतमसोः समानतां,
दर्शयन्ति सुखदुःखकारिणोः ॥५३।। अर्थ-रचे हैं पुण्य अर पाप जिननें ऐसे जे दिन विर्षे भोजन अर रात्रि विष भोजन दोऊनकों समान कहै हैं ते सुख अर दुःखके करनेवाले ऐसे प्रकाश और अन्धकार दोऊनिकौं समान दिखावै है।