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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-म्लेच्छ भील लोकनिके मुख की लाल करि मलिन अर मद्य मांस जामैं संचय कीये ऐसे भाजनमैं धरया अर पुण्यकौं नाश करनेवाला जो मधु ताहि ग्लानि रहित खाते पुरुषकै पवित्रपना कैसा है सो कहि ॥२६॥
यश्चिखादिषति सारघं कुधीर्मक्षिकागणविनाशनस्पृहः । पापकर्दमनिषेधनिम्नगा,
तस्य हन्त करुणा कुतस्तनी ॥३०॥ अर्थ--मक्षिकानके समूहके विनाशनेकी है इच्छा जाके ऐसा जो कुबुद्धि मधु खाने की इच्छा करै है, बड़े आश्चर्य की बात है ताके करुणा काहेकी, कैसी है करुणा पापरूप कीचके दूर करनेकौं नदी समान है ॥३०॥
भक्षितो मधुकणोऽपि संचितं, सूदते झटिति पुण्यसंचयम् । काननं विषमशोचिषः कणः,
किं न भक्षयति वृक्षसंकटम् ॥३१॥ प्रर्थ -मधुका कणा भी भक्षण किया संता निश्चय करि पुण्यके समूह कौं शीघ्र नाश करै है । इहां दृष्टांत कहे है--अग्निका जो कणा है सो वृक्षनिका है समूह जा विर्षे ऐसे वनको कहा नहीं भक्षण करै है (नहीं ढहै है) ? दहै ही है ॥३१
योऽत्ति नाम मधु भेषजेच्छया, सोऽपि याति लघु दुःखमुल्वणम् । किं न नाशयति जीवितेच्छया,
भक्षितं, झटिति जीवितं विषम् ॥३२॥ अर्थ-जो औषधकी इच्छा करि भी प्रसिद्ध मधु को खाय है सो भी तीव्र दुःखकौं शीघ्र प्राप्त होय है। इहां दृष्टांत कहे है-जीवनेंकी इच्छा करि खाय जो विष सा कहा शीघ्र जोवनेकौं न नाशै है ? नाशै ही है ॥३२॥