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श्री अमितगति श्रावकाचार
विचेतनानि भूतानि, सिसृक्षावशतः कथम् । विनिर्माणाय विश्वस्य, वर्तते तस्य कथ्यताम् ॥४॥
अर्थ ---आचार्य कहै है जो ऐसा यह कार्य हेतु है सो तौ ईश्वरके जैसे बुद्धिमानपना साधै है तैसे देहवानपना भी निश्चयकरि माधै है ॥२०॥
जातें कुम्भकार मैंने कहूँ शरीररहित न देख्या तातें कुलाल दृष्टांत है सो ता ईश्वरकै संदेहपर्नेकौं कहै है ।।८१॥
बहुरि देहसहितकै कर्त्तापनी होत सन्तै हम आदि सरीसा भया जातें सो ईश्वर कुम्भकारादिककी ज्यों देखने योग्यपनेकौं प्राप्त भया तातें ॥२॥
बहुरि उपकरणविना ताकरि लोक कैसे करिए है, बहुरि करिक निराधार आकाशविर्षे कहां धरिए है ॥८३॥ .
बहुरि वह कहै है:--जो ताकी उपजावेकी इच्छा होते पृथ्वी आदि हैं ते लोककौं रचे हैं, ताकू कहिए है;-जो ताको उपजायवेकः इच्छाके वशतें पृथ्वी आदि भूत अचेतन हैं ते लोकके वनावनेके अथि कैसे प्रवर्ते है सो कहि । तातै लोकका कर्ता ईश्वर मानना मिथ्या है ।।८४॥
आगें बौद्ध का निषेध करै है :बुद्धोऽपि न समस्तज्ञः, कथ्यते तथ्यवादिभिः । प्रमाणादिविरुद्धस्य, शून्यत्वादेनिवेदनात् ॥८॥
अर्थ-बहुरि तथ्यवादीनि करि बुद्ध भी सर्वज्ञ न कहिए है, जातें प्रमाणादि करि विरुद्ध ऐसा शून्यपना आदि जनावै है ताते ॥८५॥
प्रमाणेनाप्रमाणेन, सर्वशून्यत्वसाधने । सर्वस्यानिश्चित सिद्ध येत्तत्वं केन निषिध्यते ॥८६॥ ..
अर्थ-सर्वकै शून्यपना साधनेमैं प्रमाणकरि वा अप्रमाणकरि सर्वक अनिश्चित तत्त्व सिद्ध होय, निषेध कौनकरि करिए।