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भगवान ने दया आत्मकल्याण के उद्देश्य से करने को कही है, जिसे संसार में रस है उसे स्थूल जीवों की दया करने के पश्चात् भी तत्व से हिंसा में ही रस है । ऐसी दया में जिनाज्ञा नहीं है । ऐसा धर्म तत्व से धर्म नहीं है ।
भौतिक स्वार्थ याने स्वार्थ आध्यात्मिक स्वार्थ याने परमार्थ ।
* आपके आत्मीक सुख में, स्वकल्याण में ही जगत का कल्याण है एवं स्वार्थ एवं परपीड़ा की परम्परा है ।
* आपके आत्मा का कल्याण ना हो, हित ना हो ऐसे अहिंसा- -सत्य का जैन धर्म आग्रह नहीं रखता । कोई भी धर्म अंत में आत्मा की उन्नति का ही लक्ष्य रखता है । अगर आत्म की अवनति होती हो तो वह धर्म, धर्म नहीं है ।
जिनाज्ञा :
* 'जिन' यह व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है अतः जिनाज्ञा मोक्ष मार्गानुसारित का लक्ष्य विकसित करता है और इसी से आत्मा तिरती है ।
जिनाज्ञा त्याग-संयम धर्म की है । भगवान एवं सद्गुरु के अनुरागी बनो । मोह के क्षय से ही धर्म है ।
मेघकुमार के जीव ने हाथी के भव में एक की दया पालकर मोक्ष साधक गुणों को प्राप्त किया ।
जिस जीव जिस समय जो आत्महितकारी है वह ही उसके लिए मार्ग है, आज्ञा है । साधु एवं श्रावक दोनों के लिए नियत जिनाज्ञा है । सूक्ष्म जयणा संपन्न आचार पालते समय साधु या श्रावक क्रमशः स्वाध्याय रूप प्रतिदिन सिद्धांत - शास्त्र का अभ्यास करना चाहिए ।
* प्रतिदिन अध्ययन / स्वाध्याय करो एवं नया-नया बोध प्राप्त करो ।
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