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अरिहंत वंदनावली
(छंद हरिगीतिका) बहुश्रूत चितानाचार्य कृत प्राकृत स्तोत्र के गुजराती अनुवाद में से स्वाध्याय : रविवार,
10 अगस्त 2008 दीक्षा कल्याणक
निर्मल विपुलमति मन:पर्यव ज्ञान सहेजे दीपतां, जे पांच समिति गुप्ति त्रयनी रयणमाला धारतां, दस भेद थी जे श्रमण सुंदर धर्म नुपालन करे,
एवां प्रभु अरिहंत ने पंचांग भावे हुँनमुं। लोकोपकार
जे बीज भूत गणाय छे, त्रण पद चतुर्दश पूर्वना, उपन्नेई वा विगमेई वा ध्रुवेई ना महातत्व ना। एदान सु-श्रुतज्ञान नुं देनार त्रण जगन्नाथ जे,
एवां प्रभु अरिहंत ने पंचांग भावे हुँनमुं। तीर्थ स्थापना
जेना गुणों ना सिंधु ना बे बिंदु पण जाणु नहीं, पण एक श्रद्धा दिलमहीं के नाथ सम को छे नहीं। जेना सहारे क्रोड़ तरीया, मुक्ति मुज निश्चय सही,
एवां प्रभु अरिहंत ने पंचांग भावे हुँनमुं। जीवन के समस्त प्रपंचों को वास्तविक स्वरूप में देखना और वास्तविक सत्यों को स्वीकारने की अवस्था ही वैराग्य है।
अग्नि होने के पश्चात् भी अग्नि को न मानोगे तो जलोगे ही।
संसार छोड़ने जैसा है, संयम लेना जैसा है और मोक्ष पाने जैसा है, इस बात को माननास्वीकारना ही वैराग्य है।
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