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जैन दर्शन को आभास मात्र सापेक्षता के साथ संबंध नहीं हैं । जैसे 6 फिट का मनुष्य पहाड़ पर से एक वेंत (12) दिखता है । यह आभास मात्र है फिर ऐसा ही दिखता है । रेल्वे के दो पाट मिलते हुए दिखते हैं आदि आकाश और पृथ्वी क्षितिज पर एक होते दृष्टिगत होते हैं। यह सब वास्तविकता नहीं है । इसलिए जैन दर्शन में ऐसी सापेक्षता को स्थान नहीं है । जैसा दिखता है वैसा ही कहा जाता है उसमें सत्य का अनुभव नहीं । इसलिए इसको सत्य कहने से सत्य से दूर ले जाना है ।
भगवान महावीर ने 'गौशाला गलत है' ऐसा कहा - लेकिन उसका अर्थ यह नहीं किया जाता कि भगवान को स्याद्वाद लगाते नहीं आता था ? जहां प्रभु को गलत लगा वहाँ उन्होंने उसका खण्डन किया ।
* स्यादवाद शुद्ध दृष्टिकोण से वास्तविक रुप में प्रारंभिक शैली है । इसमें कोई भी हठवादिता का स्थान नहीं है ।
अनेकान्तवाद का अर्थ क्या है ? सामान्य अर्थ, एकान्त नहीं वह ।
सापेक्ष का अर्थ क्या ? अपेक्षा सह विचार करना ।
स्याद् का अर्थ क्या ? अव्यय है, सभी विधानों में स्याद् शब्द को जोड़ना वह स्याद्वाद । नयवाद का क्या अर्थ ? नय- अर्थात् दृष्टिकोण, आंशिक सत्य का ज्ञान कराता है,
प्रमाण ज्ञान पूर्ण सत्य का, बस यह स्याद्वाद ।
हाथी और 6 प्रज्ञाचक्षुओं का दृष्टांत :
1. पहले ने हाथी की सूंड पकड़ी - हाथी कमान (Arch) जैसा है वैसा लगा ।
2. दूसरे ने हाथी पूंछ पकड़ी - हाथी रस्से जैसा है वैसा कहा
3. तीसरे ने हाथी का पांव पकड़ा हाथी खम्बे जैसा । 4. चौथे ने हाथी का कान पकड़ा - हाथी सूपड़े जैसा ।
5. पांचवें ने हाथी के पेट पर हाथ फेरा - हाथी पहाड़ जैसा ।
6. छठे ने हाथी की पीठ पर हाथ फेरा - हाथी सपाट शिला जैसा ।
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6 ही प्रज्ञाचक्षु 6 अपेक्षा से सत्य ही थे । किन्तु सभी के विधान अलग थे। आंशिक सत्य वास्तविकता के साथ मेल बिठा ले तो हो सकता है ।
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