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ओघ दृष्टि
भवाभिनंदीता
परभावदशा पुद्गल सुख की इच्छा
दृष्टि = (बोध = ज्ञान)
पुद्गलिक सुख के साधन की इच्छा सुख का राग - दुःख का द्वेष
उससे क्लेश, कषाय,
आवेश
योगदृष्टि योगांग 1. मित्रा
2. तारा
यम
नियम
3. बला
आसन
प्राणायाम
4. दीप्रा 5. स्थिरा
प्रत्याहार
6. कांता
धारणा
7. प्रभा ध्यान 8. परा समाधि
दोषत्याग
खेद
उद्वेग
क्षेप
उत्थान
भ्रांति
अनंत जन्म-मरण का चक्र
शैलेष अवस्था, मोक्ष
योग की प्रथम दृष्टि से जो बोध होता है वह बहुत ही निस्तेज, दुर्बल होता है। ऐसे बोध को तृण की अग्नि (घास की आग ) की उपमा दी है । तृण की अग्नि का तेज, अल्प और दुर्बल होता है । सहज ही हवा लगते ही बुझ जाती है। उसी प्रकार प्रथम दृष्टि जीव निस्तेज होता है ।
अन्यमुद
संग
आसंग
गुणस्थान
अद्वेष
जिज्ञासा
शुश्रुषा
श्रवण
बोध
मीमांसा
प्रतिपत्ति
प्रवृत्ति
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मोक्षाभिलाषी
स्वभाव दशा
गुण रूप सुख की इच्छा ↓
गुण प्राप्ति-साधन की इच्छा
-द्वेष का अभाव
↓
उससे वीतरागता, सर्वज्ञता
राग
-योग दृष्टि
बोध-उपमा
तृणग्निकण
गोमय अग्निकण
काष्ट अग्निकण
दीपप्रभा
रत्नप्रभा
तारा प्रभा
सूर्य प्रभा
चंद्रप्रभा
विशेष
मिथ्यात्व
मिथ्यात्व
मिथ्यात्व
मिथ्यात्व
सम्यक्त्व
सम्यक्त्व
सम्यक्त्व
सम्यक्त्व