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इन श्लोकोंसे यह मालूम हुआ कि गुणनन्दिके शिष्य अभयनन्दि और उनके वीरनंदि हुए; पर यह मालूम नहीं हुआ कि अभयनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र भी थे । इसके लिए त्रिलोकसारकी नीचे लिखी गाथा देखिए:इदि
मिचंदमुणिणा णप्पसुदेणभयणंदिवच्छेण । रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया ॥
यदि यह कहा जाय कि वीरनंदिके गुरु अभयनन्दि और होंगे और नेमिचन्द्रके गुरु अभयनन्दि और तो इसका समाधान गोम्मटसार कर्मकाण्डकी नीचे लिखी गाथासे होता है:
जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिष्णो । वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं ॥ ४३६ ॥
इसमें कहा है कि जिनके चरणोंके प्रसादसे वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि शिष्य संसारसमुदायसे पार हो गये, उन अभयनन्दि गुरुको नमस्कार हो । इससे सिद्ध हुआ कि अभयनन्दिके शिष्योंमें जिन वीरनन्दिका उल्लेख है, वे और कोई नहीं किन्तु चन्द्रप्रभ महाकाव्य के कर्त्ता ही हैं । वीरनन्दि और नेमिचन्द्रकी समकालीनतासे भी इस बात की पुष्टि होती है, जिसका कि उल्लेख आगे किया गया है।
इन्द्रनन्दि और वीरनन्दि बहुत बड़े विद्वान थे । यद्यपि अभयनन्दिके शिष्य होनेसे वे नेमिचन्द्रके गुरुभाई थे, तो भी उन्हें नेमिचन्द्र ने अपने गुरुके समान भक्तिभावसे स्मरण किया है:
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णमिऊण अभयदि सुदसागरपारगिंदणंदिगुरुं । वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पञ्चयं वोच्छं ॥ ७८५ ॥ — कर्मकाण्ड अध्याय ६ ।
णमह गुणरयभूसणसिद्धंतामियमहब्धिभवभावं । वरवीरणंदिचंदं णिम्मलगुणमिंदणंदिगुरुं ॥ ८९६ ॥
- कर्मकाण्ड अध्याय ८ ।