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:: प्रस्तावना::
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की ओर से सत्य और समीचीन प्रयास ही नहीं किया गया। पिछले कुछ वर्षों से इस दिशा में यत्किंचित् श्रम किया गया है, परन्तु वह श्रम इस स्तर तक फिर भी नहीं बन सका, जो साहित्यसेवियों एवं शिल्पप्रेमियों को आकर्षित कर सके। प्रस्तुत इतिहास में मुझको साहित्यसंबंधी सेवायें देने का तो अवसर नहीं मिल सका है, परन्तु जैन मंदिरों में रहा हुआ जो अद्भुत शिल्पकाम है, उसको प्रकाश में लाने का अच्छा सुयोग अवश्य प्राप्त हो सका है और मैंने इस सुयोग को हाथ से नहीं जाने दिया यह कहां तक मैं सही कह सकता हूं यह सब पाठकों की तृप्ति पर ही विदित हो सकता है।
प्राग्वाट-इतिहास केवल प्राग्वाटज्ञाति का ही इतिहास है। इसमें उन्हीं जिनालयों का वर्णन आया है, जो प्राम्बाटबंधुओं द्वारा विनिर्मित हुये हैं अथवा जिनमें प्राग्वाटबंधुओं ने उल्लेखनीय निर्माणकार्य करवाया है, अतः प्रस्तुत इतिहास में जितना शिल्पकाम अवसर पा सका है यद्यपि वह आंशिक ही कहा जा सकता है, परन्तु मेरा विश्वास है और अनुभव कि समस्त जैन-जिनालयों में जो उत्तम शिल्प एवं निर्माणसंबंधी वर्णनीय वस्तु है, वह अधिकांश में अवतरित हो गई है । जैन-जिनालयों में शिल्प एवं स्थापत्य की दृष्टि से अर्बुदगिरिस्थ श्री विमलवसहि, लूणवसहि, भीमवसहि, खरतरवसहि, अचलगढ़दुर्गस्थ श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनालय और उसमें विराजित १४४४ मण पंचधातुविनिर्मित बारह जिनप्रतिमायें, गिरनारतीर्थस्थ श्री नेमिनाथटूक, श्री वस्तुपालतेजपालटूक, १४४४ स्तंभों वाला श्री राणकपुर-थरणविहार श्री आदिनाथ-चतुर्मुख-जिनालय सर्वोत्कृष्ट एवं अद्भुत ही नहीं, संसार के शिल्पकलामण्डित सर्वोत्तम स्थानों में अपूर्व एवं आश्चर्यकारी हैं और शिल्पविज्ञों के मस्तिष्क की अनुपम देन और शिल्पकारों की टाँकी का जादू प्रकट करने वाले हैं । उपरोक्त जिनालयों में श्री विमलवसहि, लूणवसहि, वस्तुपाल-तेजपालटूक, अचलगढस्थ श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनालय और श्री राणकपुरतीर्थधरणविहार प्राग्वाटज्ञातीय बंधुओं द्वारा विनिर्मित हैं और फलतः इनका प्रस्तुत इतिहास में वर्णन अनिवार्यतः आया है और मैंने भी इनमें से प्रत्येक के वर्णन को स्थान और स्तर अपनी कलम की शक्ति के अनुसार पूरा-पूरा देकर उसको पूर्णता देने का ही प्रयास किया है, जिसकी सत्यता पाठकगण प्रस्तुत इतिहास में पाये इनके वर्णन पढ़ कर तथा शिल्पकला को पाठकों के समक्ष प्रत्यक्षरूप से रखने का प्रयास करने वाले शिल्पचित्रों से अनुभव कर सकेंगे। __इतिहास में भाषा सरल और सुबोध चलाई है। इतिहास की वस्तु को रेखांकित चरणलेखों से ऊपर लिखी है। जिसका जैसा और जितना वर्णन देना चाहिए, उतना ही देने का प्रयास किया गया है। सच्चाई को प्रमुखता ही नहीं दी गई, वरन् उसी को पूरा २ प्रतिष्ठित किया गया है। विवाद और कलह उत्पन्न करने वाली बातों को छुआ तक नहीं। इस इतिहास के लिखने का केवल मात्र इतना ही उद्देश्य रहा है कि प्राग्वाटज्ञाति में उत्पन्न पुरुषों ने अथवा प्राग्वाटज्ञाति ने अपने देश, धर्म और समाज की सेवा में कितना भाग लिया है और फलतः प्राग्वाटज्ञाति का अन्य जैनज्ञातियों में तथा भारत की अन्य ज्ञातियों में कौन-सा स्थान है। यह नाम से भले ही प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास समझ लिया जाय, वरन् है तो यह जैनज्ञाति के एक प्रतिष्ठित अंग का वर्णन और उसके कार्य एवं कर्त्तव्य तथा धर्मपालन का लेखा।
समय वैसे इतिहास के लिखने की चर्चा तो वि० सं० २००० में ही प्रारंभ हो गई थी और यह चर्चा कई ग्रामों