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मस्ताना
प्रसिद्ध हैं और वे (आठवीं शताब्दी से पूर्व के) भाज के अलग अलग अभिधानों से प्रसिद्ध नहीं थे । वरन् एक श्रेष्ठि अथवा 'वैश्य' शब्द ही उन सब के साथ में लगता था। इन अलग अलग नामों के पड़ने का भी कारण है और उसका इतिहास है— जिसके विषय में यथाप्रसंग लिखा गया है । यद्यपि मैं भी वर्तमान वैश्य समाज के कुलों की उत्पत्ति आठवीं शताब्दी से पूर्व हुई स्वीकार नहीं करता हूँ, फिर भी वैश्य - परम्परा थी और वह भिन्न २ शाखाओं में भी थी। वे ही शाखायें आगे जाकर धीरे धीरे स्वतंत्रज्ञातियां और अलग २ नामों से मंडित होती गई । मैंने इस मत को स्थिर करके प्राग्वाट वैश्यों का यह इतिहास वैश्य - परम्परा के उस स्थान से ही लिखना प्रारंभ किया है, जिसका मुझको परिचय हो गया
अगर कोई इतिहासकार यह हठ पकड़ कर बैठे कि मैं ऐसे कुल का ही इतिहास लिखूं, जो उसके मूल पुरुष से आज तक पीढ़ी -पर-पीढ़ीगत चला श्राया है। मेरी तो निश्चित् धारणा है कि संसार में ऐसा एक भी कुल मिलने का नहीं । कुल का इतिहास एक कल का होता है— सकल का नहीं और वह भी सीमित । ज्ञाति अथवा देश का इतिहास ही वस्तुत: इतिहास का नाम धारण करने का अधिकारी है । ज्ञाति घटती-बढ़ती रहती है । पहिले के समय में एक ज्ञाति से दूसरी ज्ञाति में कुल आ जा सकते थे। आज वह बात नहीं रही है; अतः बहुतसी ज्ञातिषां तो नामशेष रह गई हैं । वे ज्ञातियां वर्ण थीं, वर्ग थीं और उनके द्वार अन्य कुलों के लिये खुले थे। आज की ज्ञातियां अपने अपने में हैं और उन्हीं कुलों पर आ थम हैं और उन्हीं में सीमित होकर रूढ़ बन गई हैं । माग्वाट ज्ञाति की भी यही दशा है । यह अन्य ज्ञातियों अथवा वर्णों से आये हुये कुल्लों से बनी है; परन्तु आज इसमें उसी प्रकार अन्य ज्ञाति अथवा वर्ण से आने वाले कुल के लिये स्थान नहीं है, अतः घटती चली जा रही है । परन्तु इसका भूतकाल का इतिहास जो लिखा गया है, वह इसकी आज की मनोवृत्ति को देख कर नहीं; वरन् पहिले से चली श्राती हुई प्रथा और परम्परा पर ही निर्भर रहा है । अतः प्रथमखण्ड में प्रास्वादपरम्परा के उस वैश्य अथवा श्रावक अंश पर लिखा गया है, जिसने आगे जा कर प्राग्वाट नाम धारण किया। फलतः इस खण्ड के विबन्धों की रचना भी इसही धारणा पर हुई है ।
इस खण्ड में निम्न विषय आये हैं:
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प्रथम खण्ड की रचना में ताम्रपत्र, शिलालेख एवं प्रशस्तियां जैसे कोई प्रामाणिक साधनों का उपयोग तो नहीं हो सका है, परन्तु जो लिखा गया है वह कल्पित भी नहीं है। भगवान् महावीर और उमके समय में भारत ब्राह्मणबाद से त्रस्त हो उठा था और जैनधर्म और बौद्धमत के जागरण का तात्कालिक कारण भी यही माना जाता है - यह प्रायः सर्व ही इतिहासकार मानते हैं । ब्राह्मणवाद की पाखण्डप्रियता से ही ज्ञाति जैसी संस्था का जन्म हुआ भी माना जाता है । वर्णों में ज्ञातिवाद उत्पन्न हो गया और धीरे २ अनेक नामवाली ज्ञातियां उत्पन्न हो गईौं । प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति भी ऐसी ही ज्ञातियों के साथ में हुई है । प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति के विषय में वि० सं० १३६३ में उपकेशगच्छीय आचार्य श्री कक्कुसूरि द्वारा लिखित उपकेशगच्छपट्टावली में लोक १६ से २१ में लिखा है। मेरी दृष्टि से तो उक्त पट्टावली प्रामाणिक ही मानी जानी चाहिए, जब कि अन्य मच्छों की पट्टावलियां प्रामाणिक मानी गई हैं । प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति कब, क्यों हुई और किसने की आदि प्रश्नों का हल इस खण्ड में दिया गया है।
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१. भ० महावीर के पूर्व और उनके समय में भारत
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