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________________ :: प्रस्तावना : करवाया था ! विज्ञापन में भी जैन समाज के विद्वानों, इतिहासप्रेमियों, पुरातत्ववेत्ताओं को चलती हुई रचना से परिचित करवाया गया था और उनसे सहानुभुति, सहयोग की प्रार्थना की थी तथा श्रीमन्तजनों से रु० १०१) की अग्रिम सदस्यता लेकर अर्थ सहयोग प्रदान करने की प्रार्थना की थी । Re पाठक अब स्वयं ही समझ सकते हैं कि हमने इतिहास को अधिकतम सच्चा, सुन्दर और प्रिय बनाने के लिये हर प्रयत्न का सहारा लिया है। वैसे प्रयत्नों का अन्त नहीं और प्रयत्न की अवधि भी निश्चित नहीं । शक्ति, समय, अर्थ की दृष्टि से हमारी पहुँच में से जितना बन सकता था, उतना हमने किया । इतिहास की रूप-रेखा "मैं इतिहासप्रेमी रहा हूँ और पूर्वजों में मेरी पूरी २ श्रद्धा रही है । परन्तु इससे पहिले मैं इतिहास-लेखक नहीं रहा । मेरे लिये इतिहास का लिखना नवीन ही विषय है । परन्तु गुरुदेव में जो श्रद्धा रही और श्री ताराचन्द्रजी इतिहास के विभाग और - का इतिहास के प्रति जो प्रेम रहा- इन दोनों के बीच मैंने निर्भय होकर यह कार्य स्वीकृत किया । इतिहास लिखने में तीन बातों का योग मिलना चाहिये - ( १ ) इति - हासप्रेमियों और इतिहासज्ञों की सहानुभूति और उनका सहयोग, (२) समृद्ध साधन-साम्रग्री और (३) सुयोग्य लेखक !! इन तीनों बातों में दो के ऊपर पूर्व पृष्ठों में बहुत कुछ कहा जा चुका है और तीसरी बात के ऊपर यह प्रस्तुत इतिहास - भाग ही कहेगा । खराड. सर्व प्रथम प्रारम्भिक इतिहासकार्य को मैंने तीन कक्षों में विभाजित किया: -- (१) प्राप्त साधन-सामग्री का अध्ययन ( २ ) इतिहाससम्बन्धी बातों की नोंध और (३) अधिकाधिक साधन-सामग्री का जुटाना । इन बावों की साधना में कितना समय लगा और किस स्थान पर ये कितनी साधी मई के विषय में भी पूर्व के पृष्ठों में लिखा जा चुका है। अब जब इतिहास की उपयोगी सामग्री ध्यान में निकाल ली गई, तब इतिहास की रूपरेखा बनाना भी अत्यन्त ही सरल हो गया । यह प्राग्वाटइतिहास दो भागों में विभक्त किया गया है। प्रथम भाग प्राचीन और द्वितीय वर्तमान । प्रथम भाग में विक्रम संवत् पूर्व ५०० वर्षो से लगा कर वि० सं० १६०० तक का यथाप्राप्त प्रामाणिक साधन-सामग्री पर इतिहास लिखा गया है और द्वितीय भाग है वर्तमान, जिसमें वि० सं० १६०१ के पश्चात् का यथाप्राप्त वर्णन रक्खा गया है । यह प्रस्तुत पुस्तक प्रथम भाग ( प्राचीन इतिहास ) है, अतः यहां सब इसके विषय में ही कहा जायगा । साधन-सामग्री के अध्ययन पर यह ज्ञात हुआ कि विक्रम संवत् की आठवीं शताब्दी से पूर्व का इतिहास अंधकार में रह गया है और पश्चात् का इतिहास शिलालेखों, ताम्रपत्रों, प्रशस्तियों, कुलगुरुओं की पट्टावलियों, ख्यातों में बिखरा हुआ है। आठवीं शताब्दी के पश्चात् का इतिहास भी दो स्तिथियों में विभाजित हुआ प्रतीत हुआ। आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी के अंत तक प्राग्वाटज्ञाति का सर्वमुखा उत्कर्ष रहा और उसके पश्चात् अवनति प्रारंभ हो गई । इस प्रकार यह प्रस्तुत इतिहास अपने आप तीन खण्डों में विभाजित हो जाता है ।.
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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