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________________ :: प्राग्वाट-इतिहास: पास में समय का नितांत अभाव था। सवेरे दूध-चाय पी करके जिनालय में प्रविष्ट होता था, जो कहीं एक या डेढ बजे बाहर श्राता था और वह समय भी थोड़ा लगता था और परन्तु बीत जाता-सा प्रतीत होता था । भोजनादि करके तीन बजे पुनः मंदिरजी में चला जाता था और सूर्योदय तक अध्ययन करता रहता था। रात्रि में फिर किये गये कार्य का अवलोकन और मनन करता था। 'श्री आनन्दजी परमानन्दजी' नामक पीढ़ी ने जो सिरोही संघ की ओर से वहाँ तीर्थ की व्यवस्था करती है, मुझको हर प्रकार की सुविधायें प्रदान की थीं । वह यहाँ अवश्यमेव धन्यवाद की पात्र और स्मरण करने के योग्य हैं। ____ एक दिन मैं एक भटकुड़े साथी के साथ में बंगाली बाबा से मिलने को चला, परन्तु उनकी गुफा नहीं मिली और हम निराश लौट आये । एक दिन और समय निकालकर हम दोनों चले और उस दिन हमने निश्चय कर लिया था कि आज तो बंगाली बाबा से मिलकर ही लौटेंगे । संयोग से हम तुरन्त ही बंगाली बाबा की गुफा के सामने जाकर खड़े हो गये। बाबाजी जटा बढ़ाये, लम्बा चुग्गा पहिने, पैरों में पावड़ियाँ डाले गुफा के बाहिर टहल रहे थे । हमने विनयपूर्वक नमस्कार किया और बाबाजी ने आशीर्वाद दिया। अब हम तीनों गुफा में प्रविष्ट हुये । बाबाजी अपनी सिंहचर्म पर बैठे और हम जूट की थैलियों पर । कुछ क्षण मौन रहने पर आत्मा और परमास्मा पर चर्चा प्रारम्भ हुई। बाबाजी ने बड़ी ही योग्यता एवं बुद्धिमत्ता से चर्चा का निर्वाह किया। यह चर्चा लगभग १२-१५ मिनट पर्यन्त चली होगी कि बीकानेर की राजमाता के दो सेवक फलादि की कुछ भेंट लेकर - उपस्थित हुये और नमस्कार करके तथा भेट बाबाजी के सामने सादर रख करके पीछे पांव लौट कर हमारे पास में आकर बैठ गये। बीच में उन में से एक ने बात काट कर कहा कि गुरुदेव ! कल तो यहां सत्याग्रह चालू " होने वाला है। इस पर मैंने कहा कि जब आबू-प्रदेश के निवासियों की भाषा, रहन-सहन और संबंधीगण भी राजस्थानीय है, केवल प्राचीन इतिहासक के पृष्टों पर अर्वाचीन संमति को राजस्थान से अलग करके गूर्जरभूमि - में मिला देना अन्याय ही माना जायगा। इस पर बाबाजी ने प्रश्न किया, 'वे इतिहास के पृष्ट कौन से हैं ? मैंने कहा, 'आपके यहाँ के जैन मंदिरों को ही लीजिये। ये यहाँ पर विनिर्मित सर्व मंदिरों में अधिकतम प्राच और शिल्प और मूल्य की दृष्टियों से दुनिया भर में बेजोड़ हैं। ये गूर्जरसम्राटों के महामात्य और दंडनायकों ..के बनाये हुये हैं । एक विक्रम की ग्यारहवीं और दूसरा तेरहवीं शताब्दी में बना है। ये सिद्ध करते हैं कि एक • सहस्त्र वर्ष पूर्व यह भाग गूर्जरसाम्राज्य का विशिष्ट एवं समाहृत अंग था। इस पर बाबाजी क्रोधातुर हो उठे और इतने आग-बबूला हुये कि उनको अपनेपन का भी तनिक भान नहीं रहा और उबल कर बोले, 'तू क्या जाने कल , का लोंडा। ये मंदिर मुसलमानों के समय में हिन्दुओं की छाती को चीर कर बनाये गये हैं और तीन सौ चार सौ वर्ष के पहिले बने हैं। बस मत पूछिये, मेरा भी पारा चढ़ गया । मैंने भी तुरन्त ही उचर दिया, 'महाराजजी ! मैं आपसे मिलने के लिए आपको संन्यासी जान कर और वह भी फिर मुझको अनेक जनों ने प्रेरित किया है, • तब मिलने आया हूं। मैं आपसे आपको इतिहासकार अथवा इतिहासवेत्ता या पुरातत्त्ववेत्ता समझ कर मिलने नहीं 'आया हूँ। अगर आप अपने को इतिहास का पंडित समझते हैं, तो फिर मैं आप से उस धरातल पर बातचीत करूँ आप साधु हैं और साधु को क्रोध करना अथवा मिथ्या बोलना सर्वथा निंदनीय है। आप तो फिर नग्न झूठ - बोल रहे हैं और फिर तामस ऊपर से । यह आपको योग्य नहीं। बस संन्यासीजी को मेरे इन शब्दों ने नहीं मालूम मस्तिष्क की किस धरा में पहुंचा दिया । वे थरथर कांपने लगे, ओष्ट फड़काने लगे। आशन पर से उठे और गुफा
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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