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________________ १२ ] :: प्राग्वाट इतिहास :: प्रश्नों पर लगभग एक घंटे भर चर्चा हुई थी। उक्त सज्जनों से जो समय-समय पर सहयोग मिलता रहा, उसका अपने २ स्थान पर आगे उल्लेख मिलेगा ही। यहां केवल इतना ही लिखना आवश्यक है कि पंडितव श्री लालचन्द्र भगवानदास, बड़ौदा ने जिनकी सहृदयतापूर्ण सहानुभूति का आभार अलग माना जायगा मेरे किये हुये कार्य का अवलोकन करने की मेरी प्रार्थना को स्वीकृत करके यथासुविधा मुझको निमंत्रित किया । मैं २ जून सन् १६४६ को सुमेरपुर से रवाना होकर अहमदाबाद होता हुआ बड़ौदा पहुँचा । पंडितजी मुझ से बड़ी ही सहृदयता से मिले और उनके ही घर पर मेरे ठहरने की उन्होंने व्यवस्था की। मैं वहां पूरे ग्यारह ११ दिवस पर्यन्त रहा। पंडितजी ने तब तक के किये गये समस्त इतिहास कार्य का वाचन किया और अपने गंभीरज्ञान एवं अनुभव से मुझको पूरा २ लाभ पहुंचाया और अनेक सुसंगतियां देकर मेरे आगे के कार्य को मार्गपाथेय दिया । इतना ही नहीं इस कार्यभर के लिये उन्होंने पूरा २ सहयोग देने की पूरी २ सहानुभूति प्रदर्शित की। 1 इसी अन्तर में प्राग्वाटज्ञातिशृङ्गार श्री धरणाशाह द्वारा विनिर्मित श्री त्रैलोक्यदीपक-धरण विहार नामक श्री रापुरतीर्थ का इतिहास में वर्णन लिखने की दृष्टि से उसका अवलोकन करने के प्रयोजन से मैं ता० २६ मई सन् १६५० को सुमेरपुर से रवाना होकर गया था । ' श्री आनन्दजी कल्याणजी की पीढ़ी, ' श्री राणकपुर तीर्थ की यात्रा अहमदाबाद का पत्र पीढ़ी की ओर से सादड़ी में नियुक्त उक्त तीर्थ-व्यवस्थापक श्री हरगोविंदभाई के नाम पर मेरे साथ में था, जिसमें मुझको तीर्थसम्बन्धी जानकारी लेने में सहाय करने की तथा मुझको वहां ठहरने के लिये सुविधा देने की दृष्टि से सूचना थी। पीढ़ी के व्यवस्थापक का कार्यालय सादड़ी' में ही है। श्री हरगोविंदभाई मेरे साथ तीर्थ तक आये और मेरे लिये जितनी सुविधा दे सकते थे, उन्होंने दीं । मैं वहां चार दिन रहा और जिनालय का वर्णन शिल्प की दृष्टि मे लिखा तथा वहां के प्रतिमा - लेखों को भी शब्दान्तरित करके उनमें से प्राग्वाटज्ञातीय लेखों की छटनी की। उनमें वर्णित पुरुषों के पुण्यकृत्यों के वर्णन तो फिर सुमेरपुर आकर लिखे । निर्वाहित करता हुआ इतिहास-लेखन को जितना अगर इतना समय इतिहास कार्य के लिये ही स्वतंत्र भागों का लेखन अब तक संभवतः पूर्ण भी होगया सुमेरपुर के छात्रालय में गृहपति के पद का कर्त्तव्य गे बढ़ा सका, वह संक्षिप्त में ऊपर दिया जा चुका है। रूप से मिलता तो यह बहुत संभव था कि इतिहास के दोनों होता । परन्तु ताराचन्द्रजी उधर छात्रालय के भी उप-सभापति ठहरे और इधर इतिहास लिखवाने वालों में भी मंत्री के स्थान पर आसीन जो रहे। दोनों पक्षों में जिधर मेरी सेवायें अधिक और अधिक समय के लिये वांच्छित रहीं, उधर ही मुझको स्वतंत्ररूप से समय देने दिया, नहीं तो डोर का निभना कठिन ही था। जब स्कूल का समय प्रातः काल का होता मैं इतिहास - कार्य ( जब लड़के स्कूल चले जाते ) सवेरे ७ से ११ बजे तक करता और जब लड़कों का स्कूल जाने का समय दिन का होता, मैं इतिहास-लेखन का कार्य दिन के १ बजे से ४ या ५ बजे तक करता । कभी २ रात्रि को भी १२ बजे से ३ या ४ बजे तक करता था । फिर भी कहना पड़ेगा कि इतिहास - कार्य को सुमेरपुर में अधिकतर हानि ही पहुँचती रही। मेरी उदासीनता जो बढ़ती ही गई, मैं उस ओर से मुड़ने में पाप समझता हुआ भी अपने परिश्रम पर पानी
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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