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:: प्राग्वाट-इतिहास
उसका सदा से प्रबल एवं घातक शत्रु रहा हूं। ईश्वर की कृपा से मेरे पढ़ाये हुये और मेरे आधीन अध्यापकों के द्वारा भी पढ़ाये हुये विद्यार्थियों को कभी स्वप्न में भी वशन करने की कुभावना शायद ही उत्पन्न हुई होगी। गृहपतिपद का भार संभालते ही मैंने छात्रों को उपदेश और शिक्षण देना प्रारंभ किया और लगभग मेरे जाने के तीसरे ही दिन छात्रालय के सर्व छात्रों ने व्य शन करवाना बंद कर दिया। मैंने भी उनको इन शब्दों में आश्वासन दिया कि मेरे रहते तुमको कोई अन्याय और अनीति से दबा नहीं सकता और जो छात्र अनुत्तीर्ण होगा, अगर तुमको मेरे शब्दों में विश्वास है तो मैं उसका पूर्णतः उत्तरदायी होऊंगा। इस पर स्कूल के अध्यापकों में बैचेनी और भारी क्रोध की बाढ़ आगई । व्य शन के कलह ने पूरा एक वर्ष लिया। यद्यपि इस एक वर्ष के समय में छात्रालय के अंदर और बाहर अनेक चारित्रिक, धार्मिक, अभ्याससंबंधी, स्वास्थ्यादि दृष्टियों से ठोस सुधार किये गये । जैसे सब छात्र मिल कर एक मास में प्रायः ३००) से ऊपर रुपये चाट आदि व्यर्थ व्यय में उड़ा देते थे, आवारा भ्रमण करते थे, स्वाध्याय की दशा बिगड़ी हुई थी. सुगंधी-तेल का प्रयोग करते थे। ये सब उड़ गये और रह गया साधारण और सात्विक जीवन । उच्च कक्षा के छात्र नियमित रूप से अपने से नीची कक्षा के छात्रों को पढ़ाने लगे । एक दूसरे को ऊँचा उठाने में अपना पूर्ण उत्तरदायित्व अनुभव करने लगे।
___ अध्यापकों ने छात्रों को अनेक प्रकार से धमकाया, अनुचीर्ण करने की गुरुपद को लांच्छित करने वाली धमकियां दीं, पर्यों पर वर्जित कार्य करवाये। छात्रों ने मेरे आश्वासन और विश्वास पर सब सहन किया, अंत में अध्यापकगण थक गये। शिक्षा-विभाग, जोधपुर तक से व्य शन के कलह को लेकर पत्र-व्यवहार चला । एक वर्ष पाद राजकीय स्कूल में से ऐसे अध्यापकों को भी राज ने स्थानान्तरित कर दिया, जिनके बुरे कृत्यों के कारण स्कूल और छात्रालय के संबंध बिगड़ गये थे। दूसरे वर्ष श्री पुखराजजी शर्मा, प्रधानाध्यापक बन कर आये । वे सज्जन और उदार और समझदार थे। दोनों संस्थाओं में प्रेम बना और बढ़ता ही गया और मैं जब तक वहां रहा, प्रेमपूर्ण बने हुये संबंध को किसी ने भी तोड़ने का फिर प्रयत्न नहीं किया।
___ उधर स्कूल के अध्यापकों से लड़ना और इधर छात्रों की स्वाध्याय में नियमित रूप से सहायता करना, उनके व्यर्थ व्ययों को रोकना, स्वास्थ्य और चरित्र को उठाना आदि बातों ने मेरा पूरा एक वर्ष ले लिया । एक वर्ष पश्चात् अब छात्रगण ही अपने स्वनिर्वाचित मंत्रीमण्डल द्वारा अपनी समस्त व्यवस्थायें करने लगे और मेरे ऊपर केवल निरीक्षण कार्य ही रह गया, जो सारे दिन और रात्रि में मेरा कुल मिला कर डेढ या दो घंटों का समय लेता था । पाठकगण नीचे दिये गये श्री रा० वी० कुम्भारे, प्रिन्सीपल, महाराज कुमार इन्टर कालेज, जोधपुर के अभिप्राय से देख लेंगे कि छात्रालय कितनी उबति कर चुका था और उस की व्यवस्था कैसी थी। अभिप्राय
___ 'मैंने ४ दिसम्बर १९४६ के प्रातःकाल 'श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग हाऊस', सुमेरपुर का निरीक्षण किया। छात्रावास-भवन, भोजनशाला, पढ़ाई की व्यवस्था, स्वच्छता इत्यादि छात्रावास के मुख्य अंगों को देखने का प्रयत्न किया । समीप का उपवन भी देखा । छात्रावास के सुयोग्य गृहपति दौलतसिंहजी लोढ़ाजी से छात्रावास की समग्र व्यवस्था के संबंध में बातचीत भी की। इस छात्रावास को देखकर मुझे महान् संतोष हुआ। मैंने कई छात्रावास देखे हैं; किन्तु श्री वर्धमान जैन छात्रावास एक अनोखी संस्था है। छात्रावास के सारे कार्य छात्रों द्वारा यंत्रवत् संपादित होते हैं तथा क्रियान्वित होते हैं । इस कार्यपरायणता में छात्रों की अन्तःप्रेरणा वस्तुतः श्लाघनीय है।