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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ तृतीय
से प्रतिष्ठामहोत्सव करवा कर श्री अजितवीर्य नाम के विहरमान तीर्थङ्कर की प्रतिमा स्थापित करवाई और तत्पश्चात् श्री शत्रुंजयमहातीर्थ के लिये संघ निकाला । इस अवसर पर संघपति डोसा ने दूर २ के संधर्मी बन्धुओं को कुकुमपत्रिकायें भेज कर संघयात्रा में संमिलित होने के लिये निमंत्रित किये थे ।
० डोसा बड़ा ही धर्मात्मा, जिनेश्वरभक्त और परोपकारी आत्मा था । जीवन भर वह पदोत्सव, प्रतिष्ठोत्सव, उपधानादि जैसे पुण्य एवं धर्म के कार्य ही करता रहा था। उसने 'अध्यात्मगीता' की प्रति स्वर्णाक्षरों में लिखवाई और वह ज्ञान भंडार में विद्यमान है। इस प्रकार धर्मयुक्त जीवन व्यतीत करते हुये उसका स्वर्गवास वि० सं० १८३२ पौ० कृ० ४ को हो गया ।
श्रे० डोसा के स्वर्गवास हो जाने पर उसी वर्ष में श्राविका विधवा पुंजीबाई ने अपने स्वर्गस्थ श्वसुर के पीछे चौरासी ज्ञातियों को निमंत्रित करके भारी भोज किया। उसी वर्ष में पं० पद्मविजयजी, विवेकविजयजी का लोमड़ी 'जीबाई का जीवन और में चातुर्मास कराने के लिये अपनी ओर से लींमड़ी-संघ को भेज कर विनती करवाई उसका स्वर्गवास और उनका प्रवेशोत्सव अति ही धूम-धाम से करवाया तथा चातुर्मास में अनेक विविध पूजायें, श्रांगी - रचनायें, प्रभावनायें आदि करवाई और अति ही द्रव्य व्यय किया । पुंजीवाई ठेट से ही धर्मप्रेमी और तपस्याप्रिया थी ही। पति के स्वर्मस्थ हो जाने पश्चात् तो उसने अपना समस्त जीवन ही तपस्याओं एवं धर्मकार्यो में लगा दिया । उसने उपधानतप, पांच- उपवास, दश-उपवास, बारह - उपवास, पन्द्रह - उपवास, मास खमण, कर्मसूदनतप, कल्याणकतप, वीसस्थानकतप, आंबिल की ओली, वर्द्धमानतप की तेत्रीस ओली, चन्दनबाला का तप, आठम, पांचम, अग्यारस, रोहिणी आदि अनेक तपस्यायें एक बार और अनेक बार की थीं। तपस्यायें कर कर के उसने अपना शरीर इतना कुश कर लिया था कि थोड़ी दूर चलना भी भारी होता था, परन्तु थी वह देव, गुरु, धर्म के प्रति महान् श्रद्धा एवं भक्तिवाली; अतः शक्ति कम होने पर भी वह प्रत्येक धर्मपर्व एवं उत्सव पर बड़ी तत्परता एवं लग्न से भाग लेती थी । वि० सं० १८३६ में पं० पद्मविजयजी महाराज ने लींमड़ी में अपना चातुर्मास किया। उस वर्ष लींमड़ी में इतनी अधिक तपस्यायें और वे भी इतनी बड़ी २ हुई कि लींमड़ी नगर एक तपोभूमि ही हो गया था । श्रे० डोसा के परिवार में श्रे० कसला की स्त्री ने पैंतीस उपवास, जेराज की स्त्री और मेराज की स्त्री मूलीबाई और अमृतबाई ने मासखमण और पुंजीबाई ने तेरह उपवास किये थे । उस घष लींमड़ी में केवल मासखमय ही ७५ थे तो अन्य प्रकार के उपवास एवं तपस्याओं की तो गिनती ही क्या हो सकती है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है उसकी तेरह उपवास करते हुये वि० सं० १८३६ की श्रावण कृ० ११ को स्वर्गगति हो गई ।
पुंजीबाई प्रति कृश शरीर हो गई थी, निदान
० डोसा के कनिष्ठ पुत्र श्रे० कसला ने अपनी भातृजाया श्राविका पुंजीबाई के तपस्या करते हुये पंचमति को प्राप्त होने पर, उसके कल्याणार्थ अनेक पुण्य एवं धर्मकार्य किये, संवत्सरीदान दिये, संघभोजन किये, अठारह वर्णों को अलग प्रीतिभोज दिये । इस प्रकार उसने बहुत द्रव्य व्यय किया। कसला
और अपने द्रव्य का सद्मार्ग में
भी अपने पिता श्रे० डोसा के समान ही पुण्यशाली मुक्तहस्त सदा सद्व्यय करने वाला था । उसने अनेक साधर्मिक वात्सल्य किये, अनेक प्रकार की पूजायें बनवाई, अनेक पदोत्सव प्रतिष्ठोत्सव किये, चौरासी- ज्ञाति-भोजन किया । उसने 'सूत्रकृतांगनियुक्ति' की प्रति वि० सं० १८२१ श्री० ० ८ सोमवार को लिखवाई तथा पं० पद्मविजयजी ने वि० सं० १८३६ में उसके अत्याग्रह पर 'समरादित्य का रास'
० कसला और उसका कार्य