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:: प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल-श्रे० वोरा डोसा ::
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इन्होंने बहुत प्रशंसनीय पुण्यकार्य किये थे । ये सूरतबंदर के निवासी थे । वि० सं० १७६७ कार्त्तिक शु० ३ रविवार को जब ज्ञानसागरमुनि को महोत्सव करके आचार्यपद प्रदान किया गया था, उसमें अधिकतम पुष्कल द्रव्य इन दोनों भ्राताओं ने व्यय किया था । आचार्यपद की प्राप्ति के पश्चात् मुनि ज्ञानसागरजी उदयसागरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुये । इसी वर्ष की मार्गशिर शु० १३ को श्रीमद् उदयसागरसूरि को गच्छनायक का पद भी सूरत में ही प्रदान किया गया था और इस महोत्सव में भी दोनों भ्राताओं ने प्रमुख भाग लिया था । जीवन में इन दोनों भ्राताओं ने अनेक बार इस प्रकार बड़े २ महोत्सव में स्वतंत्र एवं प्रमुख भाग लेकर सधर्मी बंधुओं की संघभक्ति की थी और अनेक बार वस्त्र एवं अन्न के बड़े २ दान देकर भारी कीर्त्ति का उपार्जन किया था ।
लीमडी निवासी प्राग्वाटज्ञातिकुल कमलदिवाकरसंघपति श्रेष्ठ वोरा डोसा औरा उसका गौरवशाली वंश विक्रम की अठारहवीं - उन्नीसवीं शताब्दी
विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में सौराष्ट्रभूमि के प्रसिद्ध नगर लींमड़ी में प्राग्वाटज्ञातीय वोरागोत्रीय श्रेष्ठ रवजी के पुत्र देवीचन्द्र रहते थे । उनके पुन्जा नामक छोटा भ्राता था । उस समय लींमड़ीनरेश हरभमजी राज्य करते थे । श्रे० देवीचन्द्र के डोसा नामक अति भाग्यशाली पुत्र था । श्रे० डोसा की पत्नी का नाम हीराबाई वंश-परिचय और श्रे० था । श्राविका हीराबाई श्रति पतिपरायणा एवं उदारहृदया स्त्री थी। हीराबाई की कुक्षी डोसा द्वारा प्रतिष्ठा महोत्सव से जेठमल और कसला दो पुत्र उत्पन्न हुये थे । जेठमल की पत्नी का नाम पुंजीबाई था और उसके जेराज और मेराज नामक दो पुत्र थे । कसला की पत्नी सोनवाई थी और उसके भी लक्ष्मीचन्द और त्रिकम नामक दो पुत्र थे ।
० डोसा ने वि० सं० १८१० में भारी प्रतिष्ठा महोत्सव किया और महात्मा श्री देवचन्द्रजी के करकमलों से उसको सम्पादित करवाकर श्री सीमंधरस्वामीप्रतिमा को स्थापित किया । उक्त अवसर परं श्रे० डोसा ने कुकुमपत्रिका भेज कर दूर २ से सधर्मी बंधुओं को निमंत्रित किये थे । स्वामी - वात्सल्यादि से आगंतुक बंधुओं की उसने अतिशय सेवाभक्ति की थी, पुष्कल द्रव्य दान में दिया था, विविध प्रकार की पूजायें बनाई गई थीं और दर्शकों के ठहरने के लिये उत्तम प्रकार की व्यवस्थायें की गई थीं ।
वि० सं० १८१० में डोसा के ज्येष्ठ पुत्र जेठमल का स्वर्गवास हो गया । श्रे० ङोसा को अपने प्रिय पुत्र
असारता का अनुभव करके अपने न्यायोपार्जित द्रव्य को पुण्य कार्यों में व्यय करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। इतना ही नहीं पुत्र
की मृत्यु के पश्चात् तन और मन से भी यह परोपकार में निरत हो गया ।
वि० सं० १८१४ में श्रे० डोसा ने श्री शत्रुंजयमहातीर्थ के लिये भारी संघ निकाला और पुष्कल द्रव्य व्यय करके अमर कीर्त्ति उपार्जित की । वि० सं० १८१७ में स्वर्गस्थ जेठमल की विधवा पत्नी पुंजीबाई और ० डोसा की धर्मपत्नी हीराबाई दोनों बहू, सासुओं ने संविज्ञपक्षीय पं० उत्तमविजयजी की तत्त्वावधानता में उपधानतप का आराधन करके श्रीमाला को धारण की। वि० सं० १८२० में श्रे० डोसा ने पन्यास मोहनविजयजी के करकमलों
जै० गु० क० भा० २ पृ० ५७४, ५७६
की अकाल मृत्यु से बड़ा धक्का लगा । श्रे० डोसा ने संसार की
ज्येष्ठ पुत्र जेठ । की मृत्यु और सं० डोसा का धर्म-ध्यान