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________________ .: प्रस्तावना :: 1k सुधारक, योद्धा, रणवीर, सेवक हुये हैं। फिर इन किसी एक को भी भारत के इतिहास में स्थान नहीं मिलने का क्या कारण हैं ? यह विचार मुझको आज तक भी सताता रहा है। अब हमारे राष्ट्रीय भावना वाले इतिहासज्ञों का विचार और दृष्टिकोण विशाल बनने लगा है और वे न्यायनीति को लेकर इतिहास के क्षेत्र में परिश्रम करते हुये दिखाई भी देने लगे हैं। ___ भारत के मूलनिवासी जैन और वैष्णव इन दो मतों में ही विभक्त हैं। फिर क्या कारण है कि भारत के इतिहास में वैष्णवमतपक्ष ही सर्व पृष्ठों को भर बैठा है और जैनपक्ष के लिए एक-दो पृष्ठ भी नहीं । जब हम वैष्णवमतपक्ष के न्यायशील, उद्भट विद्वानों के मतों, प्रवचनों को पढ़ते हैं तो वे यह स्वीकार करते हुये प्रतीत होते हैं कि जैनसाहित्य अगाव है, उसकी प्रवणता, उसकी विशालता संसार के किसी भी देश के बड़े से बड़े साहित्य से किसी भी प्रकार कम नहीं है और जैनवीर, महापुरुष, तीर्थङ्कर, विद्वान, कलाविज्ञ भी अगणित हो गये हैं, जिन्होंने भारत की संस्कृति बनाने में, भारत की कीर्ति और शोभा बढ़ाने में अपनी अमूल्य सेवाओं का अद्भुत योग दिया है। परन्तु जब भारत का इतिहास उठा कर देखें तो जैनसाहित्य के विषय में एक भी पंक्ति नहीं और किसी एक जैनवीर, महापुरुष का भी नामोल्लेख नहीं। अधिक तो क्या चरमतीर्थकर भगवान् महावीर जिनको समस्त संसार अहिंसा-धर्म के प्रबल समर्थक और पुनःप्रचारक मानता है, उनका वर्णन भी अब २ दिया जाने लगा है तो फिर अन्य जैन प्रतिष्ठित पुरुषों, संतों, नीतिज्ञों, वीरों की तो बात ही कौन पूछे। इस कमी के दोषियों में स्वयं जैन विद्वान् भी प्रगणित होते हैं। आज तक जैनियों ने अपने विस्तृत एवं विशाल साहित्य को, ऐतिहासिक महापुरुषों को, स्थानों को, कलापूर्ण मंदिरों को, दानवीर, धर्मात्मा, देश भक्त, सिद्ध, अरिहंतों को, वीरों को, मंत्रियों को, दंडनायकों को प्रकाश देने का समुचित ढंग एवं निश्चित नीति से प्रयत्न ही नहीं किया है । तब अगर अन्यपक्ष के विद्वानों द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में, इतिहासों में उनको स्थान नहीं दिया गया एवं प्रकाश में नहीं लाया गया तो इसके लिये केवल मात्र उन्हीं को दोषी ठहराना न्यायसंगत नहीं है। यह विचार भी मुझको सदा प्रेरित करता ही रहा है कि मैं कभी ऐसा ग्रन्थ एवं पुस्तक अथवा इतिहास लिखू कि जिसके द्वारा जैन महापुरुषों का परिचय, जैन मंदिरों की कला का ज्ञान और ऐसे ही अन्य ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक गौरवशाली बातों को अन्यमतपक्ष के विचारकों, लेखकों एवं विद्वानों, कलाविज्ञों के समक्ष रक्खू और उनकी दिशा को बदलू अथवा उनको कुछ तो आकृष्ट कर सकूँ । इसी विचार को लेकर मैंने लगभग एक सहस्र हरिगीतिका छंदों में 'जैन-जगती' नामक पुस्तक लिखी, जो वि० सं० १९६६ में प्रकाशित हुई। पाठक उसको पढ़ कर मेरे कथन की सत्यता पर अधिक सहजता एवं सफलता से विचार कर सकते हैं। कोई भी इतरमतावलंबी उक्त पंक्तियों से यह आशय निकालने की अनुचित धृष्टता नहीं करें कि मैं जैनमत का ममत्व रखता हूं। मैं आर्यसमाजी संस्थाओं का स्नातक हूँ और आर्यसमाजी संयासियों का मेरे जीवन में अधिक प्रभाव है। धर्मदृष्टि से मैं कौन मतावलंबी हूँ, आज भी नहीं कह सकता हूं। इतना अवश्य कह सकता हूं कि सब ही अच्छी बातों, अध्यवसायों से मुझ को प्रेम है और समभाव है। ऊपर जो कुछ भी कहा है वह एक इतिहासप्रेमी के नाते, न्यायनीति के सहारे । वैसे कोई भी व्यक्ति जो इतिहास लिखने का श्रम करेगा, वह अपने श्रम में निष्पक्ष, ममत्वहीन, असाम्प्रदायिक रहकर ही सफल हो सकता है । ये गुण जिस इतिहास-लेखक में नहीं होंगे अथया न्यून भी होंगे, वह उतना ही असफल होगा, निर्विवाद सिद्ध है।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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