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प्रस्तावनी::
सकता है, सहज समझ में आ सकता है इस दोष के कारण पाश्चात्य विद्वानों ने भारत का इतिहास लिखने में बड़ी २ त्रुटियां की हैं। उन्होंने जो मिला, जैसा उसको अर्थ, आशय समझी उसके आधार पर अपना मत स्थिर करके लिख दिया और वह कुछ का कुछ लिखा गया। फिर भी हम इतना उनका आभार मानेंगे कि भारत में क्रमबद्ध इतिहास लिखने की प्रेरणा एवं भावना पाश्चात्य विद्वानों द्वारा ही हमारे मस्तिष्कों में उत्पन्न हुई।
उपर्युक्त कथन से यह नहीं अर्थ निकाला जा सकता कि भारत में इतिहास-विषय से अवगति थी ही नहीं। 'महाभारत' भी तो एक इतिहास का ही रूप है । परन्तु तत्पश्चात् ऐसे ग्रन्थ क्रमशः नहीं लिखे गये। अगर लिखे गये होते तो आज भारत के इतिहास में जो क्रमभंगता दृष्टिगत होती है, वह नहीं होती और पूर्वजों का क्रमबद्ध इंतिहास सहज लिखा जा सकता। सम्राट अशोक का इतिहासज्ञ सदा आभार मानेंगे कि जिसने सर्व प्रथम शिला-लेख लिखवाने की प्रथा को जन्म दिया। यह प्रथा आगे जाकर इतनी व्यापक, प्रिय और सहज हुई कि राजवंशों ने, प्रतिष्ठित कुलों ने, श्रीमंतों ने शिलापट्टों में अपनी प्रशस्तियां उत्कीर्णित करवाई, प्रतिमाओं पर अपने परिचययुक्त लेख खुदवाये, जो आज भी सहस्रों की संख्या में प्राप्त हैं। यवनशत्रु जितना साहित्य को नष्ट कर सके, उतना शिला-लेखों को नहीं, कारण कि वे प्रतिमाओं के मस्तिष्क भाग को ही तोड़ कर रह जाते थे और शिला-लेख तो प्रतिमाओं के नीचे अथवा आशनपट्टों पर एवं पृष्ठ भागों पर उत्कीर्णित होते हैं, फलतः वे यवनों के क्रूरकरों द्वारा नष्ट एवं भंग होने से अधिकांशतः और प्रायः बच गये। आक्रमण के समय हमारे पूर्वज भी प्रतिमाओं को गुप्तस्थलों में, भूगृहों में स्थानान्तरित कर देते थे और इस प्रकार भी अनेक प्रतिमायें खण्डित होने से बचाली गई। मंदिरों में जो आज भी गुप्तभंडार, जिनको भूगृह भी कहते हैं बनाये जाते हैं, इनकी बनाने की प्रथा प्रमुखतः यवन-आततायियों के आक्रमण के भय के कारण ही संभूत हुई अथवा वृद्धि को प्राप्त हुई प्रतीत होती है । इतिहास के प्रमुख एवं विश्वस्त साधनों में शिला लेख, ताम्रपत्र ही अधिक मूल्य की वस्तुयें मानी जाती हैं । यह तो हुआ भारतवर्ष के इतिहास और उसकी साधन-सामग्री के विषय में ।
__ अब बड़ी दुःख की बात जो प्रायः मेरे अनुभव में आई है वह यह है कि आज के राष्ट्रीयवादी एवं अपने को भारतमाता का भक्त समझने वाले, ज्ञातिभेद के विरोधी यह धारणा रखते हैं कि अब ज्ञातीय इतिहास लिखना ज्ञातीय-इतिहास के प्रति ज्ञातिमत को और सुदृढ़ करना अथवा उसको पुष्ट बनाना है । अच्छे २ इतिहासज्ञ एवं हमारी उदासीनता और इतिहासकार भी इस धारणा से ग्रस्त हैं। मैं स्वयं भी ज्ञातिमत का पोषक एवं समर्थक उसका दुष्प्रभाव नहीं हूँ और फिर जैन इतिहासकार तो ज्ञातिमत का समर्थन ही कैसे करेगा, जबकि जैनमत ज्ञातिभेद का प्रबल शत्र रहा है और जैनसमाज की संस्थापना ज्ञातिमत के विरोध में ही हुई है। जब मैंने इस प्राग्वाट-इतिहास का लेखन प्रारंभ किया था, तो मेरे अनेक मित्र इस कार्य से अप्रसन्न ही हुये कि तुमने ज्ञातीय भेद को सुदृढ़ करने वाला यह कैसा कार्य उठा लिया। इस कार्य को प्रारम्भ करने के पहिले मैंने भी इस पर बहुत ही विचार किया कि मैं युग की शुभेच्छा के विरुद्ध तो नहीं चलना चाहता हूं, मैं विशुद्ध राष्ट्रीयता को अपने इस कार्य से कोई हानि तो नहीं पहुँचाऊंगा । अन्त में मैं इस अन्त पर पहुँचा कि कोई भी सबल राष्ट्र अगर अपने राष्ट्र का सर्वाङ्गीण इतिहास बनाना चाहेगा तो उसे इतिहासकार्य को कई एक विभागों में विभक्त करना पड़ेगा और