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खण्ड ]
:: श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण-कवीश्वर ऋषभदास ::
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महाकवि ने उपरोक्त रासों के अतिरिक्त स्तवन ५८ (३३), नमस्कार ३२, स्तुति ४२, सुभाषित ५४००, गीत ४१, हरियाली ५ की रचनायें की। रासों की रचनाओं की पूर्णतिथि देखते हुये यह प्रतीत होता है कि महाकवि का साहित्यिक महाकवि का गुरुवार के प्रति अधिक श्रद्धापूर्ण अनुराग था, जो उनकी गुरु के प्रति स्थान
भक्ति का द्योतक है तथा द्वितीया और पंचमी तपतिथियों से भी उनका विशेषानुराग था सिद्ध होता है। प्रकट बात यह है कि महाकवि ने अपनी प्रत्येक रचना की पूर्णाहति शुभ दिवस और शुभ तिथि में ही की। कवि को राग-संगीत एवं देशियों का अच्छा ज्ञान था। जैन-साहित्य से उनका जैसा परिचय था, वैसा जैनेतर-साहित्य से भी था । अपनी रचनाओं में कवि ने अनेक जैनेतर दृष्टान्त एवं कथानों का उल्लेख किया है।
महाकवि ऋषभदास सामाजिक कवि थे, जो सुधारवादी और प्राचीन युग के प्रति श्रद्धालु होते हैं । इनके रासों में अधिकतम ऐसे रास हैं जो महापुरुषों के जीवन-चरित्रों, नीति एवं धर्मसिद्धान्तों के आधार पर बने हैं । इन रासों में मुक्तिमार्ग का ही एक मात्र उपदेश है। वैसे कवि अपनी मातृभूमि के प्रति भी अधिक श्रद्धावान् था । खंभात का वर्णन इन्होंने बड़ी श्रद्धापूर्णभावना एवं उत्साह से लिखा है । हर रास में कुछ न कुछ वर्णन खंभात का मिलता ही है । इन्होंने यत्र-तत्र अपने विषय में भी लिखा है । ऐसा लिखने का इनका उद्देश्य यही था कि आगे आनेवाली संतति किसी भी प्रकार से भ्रम में नहीं पड़े । भारत के बहुत कम कवियों ने इस प्रकार अपने विषय में लिखने का साहस किया है । इस प्रकार महाकवि ऋषभदास सुधारवादी, देश और धर्म के भक्त और गूर्जरभाषा के उद्भट विद्वान् थे । गुरु, देव और सरस्वती तीनों के ये परम पुजारी थे। जैसे जिनेश्वर के भक्त थे, वैसे ही ये गुरु के अनन्य अनुयायी थे। विजयसेनसूरि को ये अपना गुरु मानते थे और आयुभर उनके प्रति उत्कट श्रद्धालु रहे थे। सरस्वती के भी ये वैसे ही अनन्योपासक थे। अपनी प्रत्येक रचना के प्रारम्भ में इन्होंने सरस्वती को वन्दन किया है।
____ अपनी स्थिति में इनको संतोष था; अतः ये परम सुखी थे। परिजनों से इनका अनुराग रहा। कवि ने स्वयं लिखा है कि मेरी पत्नी सुलक्षिणी है, मेरे भाई और भगिनी हैं, आज्ञाकारी पुत्र, पुत्रियाँ हैं, दुधारु गाय और
__भैंस हैं; मुझ पर लक्ष्मी प्रसन्न है, परिवार में संप है, समाज, लोक एवं राज्य में महाकवि का गाईस्थ्य-जीवन
- मान है। वैसे कवि सर्व प्रकार सुखी थे, परन्तु उनकी संघ निकालने की अभिलाषा पूर्ण नहीं हुई, क्यों कि इतना अधिक द्रव्य उनके पास नहीं था कि तीर्थों का संघ निकालने का व्यय वे सहन कर सकते । यह अपनी अतृप्ति स्वयं अपनी कृतियों में उन्होंने प्रकाशित की है।
देखो (१) 'कविवर ऋषमदास' नामक रा० रा० मोहनलाल दलीचन्द देसाई का लेख जो सन् १४२५ में 'जै० श्वे. कान्फरेंस हेरल्ड' को उद्देशित करके प्रकाशित हुए अङ्क में पृ० ३७३ से ४०१ पर प्रकाशित हुआ है।
(२) जै० गु० क. भा०१ पृ०४०६-४५८. (३) प्रा० का०म० मौक्तिक ८, (कुमारपाल-रास) प्रवेशक पृ०१-११०. 'ते जयसिंह गुरु माहरोरे, विजयतिलक तस पाट । समता शील विद्या घणीरे, देखाड़े शुभ गति वाट ।। कविजन केरी पोहोती पास, हीर तणो मि जोडची रास । ऋषभदेव गणिधर महिमाय, तृठी शारदा ब्रह्मसुता य॥ सार वचन द्यो सरस्वती, तुछे ब्रह्मसुता य । तुमुज मुख अावी रमे, जगमति निर्मल थाय' ।
भरतेश्वर-नास. 'सुन्दर घरणी शोभती, म० बहिन बांधव जोड़ि। बाल रमि बहु बारणि, म० कुटुम्ब तणि कई जोड़ि। गाय महिषी दुजता, म० सुरतरु फलीभो बारि । सकल पदारथ नाम थी, म थिर थई लछी नारि ॥