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:: प्राग्वाट-इतिहास:
[तृतीय
धर्म ग्रंथों का पूर्ण अध्ययन करके पारंगतता प्राप्त की । इस प्रकार मु० मेघसागरजी साधु-जीवन व्यतीत कर अपने प्रखर पांडित्य एवं शुद्ध साध्वाचार से जैन-शासन की शोभा बढ़ाने वाले हुये ।
श्रीमद् पुण्यसागरमूरि दीक्षा वि० सं० १८३३. स्वर्गवास वि० सं० १८७०
गुर्जरप्रदेशान्तर्गत बड़ौदा में प्राग्वाटज्ञातीय शा० रामसी की स्त्री मीठीबहिन की कुक्षि से वि० सं० १८१७ में पानाचन्द्र नामक पुत्र का जन्म हुआ। पानाचन्द्र श्रीमद् कीर्तिसागरसूरि का भक्त था। पानाचन्द्र को वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने वि० सं० १८३३ में कच्छभुज में कीर्तिसागरसूरि के पक्ष में दीक्षा ग्रहण की । पुण्यसागर उनका नाम रक्खा गया। कीर्तिसागरपरि की सदा इन पर प्रीति रही। वि० सं० १८४३ में कीर्तिसागरमरि का सूरत में स्वर्गवास हो गया । संघ ने पुण्यसागर मुनि को सर्व प्रकार से योग्य समझ कर उक्त संवत् में ही आचार्यपद और गच्छनायक के पदों से अलंकृत किया। श्रेष्ठि लालचन्द्र ने बहुत द्रव्य व्यय करके उपरोक्त पदों का महामहोत्सव किया था । वि० सं० १८७० कार्तिक शु० १३ को आपका पत्तन में स्वर्गवास हो गया ।*
श्री लोंकागच्छ-संस्थापक श्रीमान् लोकाशाह
वि० सं० १५२८ से वि० सं० १५४१
__राजस्थान के छोटे २ राज्यों में सिरोही का राज्य अधिक उन्नतशील और गौरवान्वित है। सिरोही-राज्य के अन्तर्गत अरहटवाड़ा नामक समृद्ध ग्राम में विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि हेमचन्द्र रहते थे। लोग उन्हें हेमाभाई कहकर पुकारते थे । हेमचन्द्र की स्त्री का नाम गंगाबाई था। श्रीमती गंगाबाई की कुक्षि से विक्रम संवत् १४७२ कार्तिक शुक्ला १५ को एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ; जिसका नाम लुंका या लोंका रक्खा गया।
लुका बड़ा चतुर और व्यापार कुशल निकला । छोटी ही आयु में उसने अपने घर का भार सम्भाल लिया और वृद्ध माता-पिता को अति सुख और आनन्द पहुँचाने लगा। लुका जब लगभग २३-२४ वर्ष का हुआ
होगा कि दुर्विपाक से उसके माता-पिता विक्रम संवत् १४६७ में स्वर्गवासी हो माता, पिता का स्वर्गवास
गये। अरहटवाड़ा यद्यपि समृद्ध और कृषि के योग्य ग्राम था; परन्तु होनहार लुका के लिये वह धन उपार्जन की दृष्टि से फिर भी छोटा क्षेत्र ही था । निदान बहुत कुछ सोच-विचार करने के पश्चात् उसने अरहटवाड़ा को त्याग कर अहमदाबाद में जाकर बसने का विचार किया।
धम०प० पृ० ३७३-४