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खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-सं०सहसा:: [२८१
कुशलता, उसकी निर्माणचतुरता का सच्चा और सिद्ध प्रमाण ये बिंब हैं, जिनकी अलौकिक सुन्दरता और सौष्ठवता दर्शकों एवं शिल्पविज्ञों को आश्चर्य में डाल देती हैं।
बड़ी प्रतिमायें, दो कायोत्सर्गिकबिंब और तीन मध्यम ऊंचाई की-इस प्रकार प्रतिमायें, ऊपर के गंभारा में प्रायः एक-सी मध्यम ऊंचाई की चारों दिशाओं में अभिमख चार प्रतिमायें और नीचे सभामण्डप के पूर्वपक्ष पर बने हुये गंभारा में मध्यम ऊंचाई की एक प्रतिमा-इस प्रकार इन चौदह घातुप्रतिमाओं का वजन १४४४ मण (कच्चा) होना कहा जाता है और अनेक पुस्तकों में इतना ही होना लिखा भी मिलता है। उत्तराभिमुख प्रतिमा का वजन १२० मण होना लिखा गया है। इस तोल को सत्य मानना ही पड़ता है । देलवाड़े के पित्तलहरभीमवसहिका के मूलनायकबिंब पर१०८ मण वजन में होना लिखा है। दोनों के आकार और तोल के अनुमान पर तो उपरोक्त १४ चौदह प्रतिमाओं का वजन १४०० या १४४४ होना मान्य है। मंदिर की सर्व प्रतिमायें भिन्न २ समय की प्रतिष्ठित हैं । उत्तराभिमुख मूलनायकप्रतिमा पर ही संघवी सहसा का लेख है और उसके विषय में अधिक परिचय देने वाला अन्य लेख कोई प्राप्त नहीं है।
चौमुखा-आदिनाथ-जिनालय के अतिरिक्त अचलगढ़ में तीन जैन मंदिर और हैं, जिनका निर्माण और जिनकी प्रतिष्ठायें भित्र २ समयों पर हुई हैं। १-श्री ऋषभदेव-जिनालय
चौमुखा-आदिनाथ-जिनालय में जाने के लिये बनी हुई उत्तराभिमुख ३३ सीढ़ियों के पूर्वपक्ष पर नीचे आंगन में यह मंदिर बना हुआ है। इसका सिंहद्वार पच्छिमाभिमुख है। मू० ना० आदिनाथबिंब पर वि० सं०१७२१ ज्ये० शु० ३ रविवार को प्रतिष्ठित किये गये का लेख है । इस मंदिर के उत्तर, पूर्व में चौवीरा छोटी २ देवकुलिकायें विनिर्मित हैं। २-श्री कुंथुनाथ-जिनालय
जैन कार्यालय के भवन में पश्चिम भाग पर जैन धर्मशाला के ऊपर की मंजिल में पूर्वाभिमुख यह जिनालय बना हुआ है। मू० ना० कुंथुनाथबिंब पर उसके वि० सं०१५२७ वै० शु०८ को प्रतिष्ठित हुए का लेख है। ३-श्री शांतिनाथ-जिनालय
अचलगढ़ में जाते समय यह मन्दिर सड़क के दाहिनी ओर कुछ अंतर पर एक छोटी-सी टेकरी पर बना हुआ है । मन्दिर विशाल और भव्य तथा प्राचीन है । हो सकता है महाराजा कुमारपाल द्वारा अर्बुदाचल पर बनवाया हुआ शांतिनाथ-जिनालय यही जिनालय हो, क्यों कि शांतिनाथ नाम का अन्य कोई जिनालय अर्बुदगिरि पर बने हुए मंदिरों में नहीं है। ओरिया के महावीर-मंदिर के विषय में पूर्व में उसके शांतिनाथ-जिनालय होने का प्रमाण मिलता हैपरन्तु वह तो वि० सं० १५०० की आस-पास में प्रतिष्ठित हुआ था।
अचलगढ़तीर्थ रोहिड़ा के श्रीसंघ की देख-रेख में है। रोहिड़ा के श्रीसंघ की ओर से वहाँ एक प्रघान मुनीम और उसके श्राधीन कई एक पुजारी, चौकीदार और अन्य सेवक रहते हैं । व्यवस्था सुन्दर और प्रशंसनीय है । मन्दिर की बनावट तो यद्यपि वैसी ही और वह ही है, परन्तु फिर भी जहाँ २ परिवर्तन-वर्धन करने का अवकाश मिला, वहाँ पीढ़ी ने निर्माणकार्य करवाया है । भ्रमती के सर्व स्तंभ जो पहिले खुले ही थे, अब दीवारों में पटा दिये गये हैं । सभामण्डप को चारों ओर से ढक कर बनी हुई इन दीवारों पर विविध तीर्थ-धर्मस्थानों के सुन्दरपट्ट सहस्रों रुपया व्यय करके बनवा दिये गये हैं । जीर्णोद्धार का कार्य चालु है । यात्रियों और दर्शकों के ठहरने, खाने-पीने श्रादि का सब प्रबन्ध उपरोक्त पीढ़ी के प्रधान मुनीम करते हैं। मन्दिर के नीचे जैन-धर्मशाला है और उसके थोड़े नीचे जैन-कार्यालय और जैन-भोजनशाला के भवन आ गए हैं । कुछ नीचे सड़क के पास में बगीचा बना हुआ है । उपर तक शिलाओं की सड़क बनी है। कार्यालय की व्यवस्था सर्व प्रकार समुचित और सुन्दर है।
इस प्रकार इस समय अचलगढ़ में जैनमन्दिर चार, धर्मशालायें दो, कार्यालय का भवन एक और एक कार्यालय का बगीचा है। कार्यालय का नाम 'अचलसी अमरसी' है। अोरिया के जिनालय की देख-रेख भी यही कार्यालय करता है। विशेष परिचय के लिए पाठक म० सा० जयन्तविजयजीकृत 'अचलगढ़' नामक पुस्तक को पढ़े।