________________
२७८ ]
:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ तृतीय
ऊंची टेकरी पर बना है । वैसे मन्दिर से संबन्धित जैन कार्यालय, धर्मशाला भी इसी टेकरी पर ठीक भैरवपोल के पास ही एक दूसरे से ऊपर-ऊपर बने हैं। चौमुखा श्रादिनाथ - जिनालय टेकरी के सर्वोपरि भाग पर बना है, जहाँ से पूर्व और दक्षिण में मैदान और मैदान में बसे रोहीड़ा आदि ग्राम स्पष्टतया दिखाई देते हैं ।
जैन कार्यालय से चौड़ी और लंबी सुदृढ़ पत्थर - शिलाओं की रपट जैन-धर्मशाला तक बनी हुई हैं । जैन धर्मशाला की छत पर होकर चौमुखा श्रादिनाथ चैत्यालय को नाल जाती है । चैत्यालय सुदृढ परिकोष्ठ के भीतर बना है। परिकोष्ठ में एक ही द्वार है और वह पश्चिमाभिमुख है । इस द्वार के भीतर आंगन में आदीश्वरनाथ का एक छोटा पश्चिमाभिमुख चैत्यालय है, इस चैत्यालय के द्वार के पास में उत्तराभिमुख लंबी २३३ सीढियाँ चढ़कर श्री चतुर्मुखाचैत्यालय के उत्तराभिमुखद्वार में प्रविष्ट होते हैं ।
चैत्यालय द्विमंजिला है । चैत्यालय लंबाई-चौड़ाई में तो मध्यम श्रेणी का ही है, परन्तु स्तंभों की ऊंचाई और उनकी अद्भुत मोटाई पर उसकी विशालता सत्तर वर्ष पूर्व वि० सं० १४६६ में प्रतिष्ठित नलिनिगुल्मविमानश्री राणकपुरतीर्थ-धरणविहार - चौमुखा - आदिनाथ - चैत्यालय का स्मरण करा देती है ।
मन्दिर का निर्माता संघ सहसा जो राणकपुरतीर्थ के निर्माता संघवी धरणा के ज्येष्ठ भ्राता रत्नाशाह के पुत्र संघवी सालिग का पुत्र था, राणकपुरतीर्थ की बनावट से अवश्य प्रभावित था, ऐसा प्रतीत होता है। दोनों मन्दिरों में कला को उतना ऊंचा स्थान नहीं दिया गया है, जितना सीधी कायिक विशालता को ।
मूलगंभारा चतुर्मुखी और समचतुर्भुजाकार है और वह बहुत ही सुदृढ़ बना हुआ है | १४ || फीट ऊंचे और ६ फीट परिधि वाले बारह स्तंभों पर इसकी रचना हुई है। गंभारे के ठीक बीच में ६ फीट समचौरस और ४ || फीट ऊंची वेदिका बनी है । इस वेदिका को प्रत्येक कोण पर चार-चार वैसे ही दीर्घकायिक स्तंभों का संयोग करके बनाया गया है । ऐसा करने से वेदिका अत्यन्त ही सुदृढ़ बन गई है। मूलगंभारे के बाहर उत्तर दिशा में गोलगुम्बजवाले गूढ़मण्डप के स्थान पर एक लम्बा कक्ष गंभारे की लम्बाई के बराबर बनाया गया है। मूलगंभारे के द्वार के दोनों ओर इस कक्ष की भित्तियों में ऊंचे और मोटे गवाक्ष बने हैं । ये दोनों गवाक्ष खाली हैं । तत्पश्चात् सभामण्डप की रचना आती है । इस सभामण्डप का मण्डप आठ स्तंभों पर अष्टकोणवाला अति ही सुदृढ़ बना है । इस सभामण्डप के पूर्व और पश्चिम पक्षों पर दो गंभारे हैं। पूर्व दिशा के गंभारे के पास में दक्षिण की ओर केसर घोटने का स्थान है । सभामण्डप के पश्चात् भ्रमती है । पहिले इन तीनों गंभारों के अतिरिक्त मन्दिर के अन्य भाग में दिवारें नहीं बनी हुई थीं । आज भ्रमती के स्तंभों को दिवारों से जोड़कर परिकोष्ठ बना दिया गया है । सभामण्डप के बाहर उत्तर में शृंगारचौकी बनी है, जिसमें से होकर भ्रमती में जाते हैं ।
1
मूलगंभारे के अन्य तीनों द्वारों के बाहर एक-एक चौकी बनी हैं। ठीक इसी मूलगंभारे के ऊपर छत पर दूसरा चौमुखा गंभारा बना है | इस गंभारे के उत्तर-द्वार के बाहर शृंगारचौकी बनी है । गंभारे के बीच में वेदिका की रचना है । इस वेदिका के ऊपर मन्दिर का विशाल शिखर है और इसकी शृंगार चौकी के आगे सभामण्डप का विशाल
से पूर्व ही परिचित था। राणकपुरतीर्थ - धरणविहार भी वि० सं० १४६६ तक बहुत अधिक बन चुका था और संभव है वि० सं० १४६८ में प्रतिष्ठोत्सव के समय महाराणा और उनके वीर सामंतों के साथ मुहम्मद खिलजी भी उपस्थित हुआ हो और सं० धरणा एवं रला के परिवार से उसका अधिक परिचय बढ़ा हो और फलतः उसने या उसके पुत्र ने सं० रत्ना की मृत्यु के पश्चात् सं० सालिग को मांडवगढ़ में बसने के लिये निमंत्रित किया हो । मुहम्मद के पुत्र ग्यासुद्दीन का सं० सालिग का पुत्र सं० सहसा मंत्री था ।