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स्वण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिर तीर्थादि में निर्माण - जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-सं० रत्ना धरणा :: [ २७१ श्री राणकपुरतीर्थ की स्थापत्यकला
धरणविहार नामक इस युगादिदेव - जिनप्रासाद की बनावट चारों दिशाओं में एक-सी प्रारम्भ हुई और सीढ़ियाँ, द्वार, प्रतोली और तदोपरी मंडप, देवकुलिकायें और उनका प्रांगण, भ्रमती, विशाल मेघमण्डप, रंगमंडपों की रचना, एक माप तथा एक आकार और एक संख्या और ढंग की करती हुई चतुष्क के मध्य में प्रमुख त्रिमंजली चतुष्द्वारवती शिखरबद्ध देवकुलिका का निर्माण करके समाप्त हुई। यह प्रासाद इतना भारी, विशाल और ऊंचा है कि देखकर महान् आश्चर्य होता है । प्रासाद के स्तम्भों की संख्या १४४४ हैं । मेघमण्डप एवं त्रिमंजली प्रमुख देवकुलिका के स्तम्भों की ऊंचाई चालीस फीट से ऊपर है । इन स्तम्भों की रचना संख्या एवं परस्पर मिलती हुई समानान्तर पंक्तियों की दृष्टि से इतनी कौशलयुक्त की गई है कि प्रासाद में कहीं भी खड़े होने पर सामने की दिशा में विनिर्मित देवकुलिका में प्रतिष्ठित प्रतिमा के दर्शन किये जा सकते हैं। प्रमुख देवकुलिका ने चतुष्क का उतना ही समानान्तर भाग घेरा है, जितना भाग प्रतोली एवं सिंह-द्वारों ने चारों दिशाओं में अधिकृत किया है । प्रासाद में चार कोणकुलिकाओं के तथा मूलनायक - कुलिका का शिखर मिलाकर ५ शिखर हैं, १८४ भूगृह हैं, जिनमें पाँच खुले हैं, आठ सब से बड़े और आठ उनसे छोटे और आठ उनसे छोटे कुल २४ मण्डप हैं, ८४ देवकुलिकायें हैं, चारों दिशाओं के चार सिंह द्वार हैं । समस्त प्रासाद सोनाणा और सेवाड़ी प्रस्तरों से बना है और इतना सुदृढ़ है कि आततायियों के आक्रमण को और ५०० पाँच सौ वर्ष के काल को झेलकर भी आज वैसा का वैसा बना खड़ा है । परमाईत सं० धरणाशाह की उज्ज्वल कीर्त्ति का यह प्रतीक सैंकड़ों वर्षों पर्यन्त और तद्विषयक इतिहास अनन्त वर्षों तक उसके नाम और गौरव को संसार में प्रकाशित करता रहेगा ।
चतुष्क की चारों बाहों पर मध्य में चार द्वार बने हुये हैं । द्वारों की प्रतीलियाँ अन्दर की ओर हैं। द्वारों के नाम दिशाओं के नाम पर ही हैं। पश्चिमोत्तर द्वार प्रमुख द्वार है। चारों द्वारों की बनावट एक-सी है। प्रत्येक जिनालय के चार सिंह द्वारों द्वार के आगे क्रमशः बड़ी और छोटी दो २ चतुष्किका हैं, जिन पर क्रमशः त्रि० और की रचना द्वि० मंजली गुम्बजदार महालय हैं । फिर सीढ़ियाँ हैं, जो जमीन के तल तक
बनी हुई हैं।
चार प्रतोलियों का वर्णन
चारों द्वारों की प्रतोलियों की बनावट एक-सी है। प्रतोलियों का आंगनभाग छतदार है और जिनालय के भीतर प्रवेश करने के लिये सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। चारों प्रतोलियों का यह भाग खुला हुआ है और भ्रमती से जाकर मिलता है । इस खुले हुये भाग के ऊपर विशाल गुम्बज है । चारों प्रतोलियों के ऊपर के गुम्बजों में बलयाकार अद्भुत कला कृति है, जिसको देखते ही बनता है । कि वह ऐसा चित्र बनाकर ले जावे, जैसा चित्र एक कृषक सीधा और आड़ा हल चलाकर अपने क्षेत्र में उभार देता है, जिसमें केवल समानान्तर सीधी और आड़ी रेखाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। जहाँ ये सीधी और आड़ी रेखायें परस्पर एक दूसरे से मिलती अथवा एक दूसरे को काटती हैं, वहाँ स्तम्भों का श्रारोपण समझना चाहिए। सोमपुरा देपाक देवी के प्रदेश एवं संकेत के अनुसार रेखाचित्र बना कर ले गया | नलिनीगुल्मविमान इसी चित्र के आकार का होता है। बस सं० धरणाशाह ने देपाक का चित्र पसन्द किया और देपाक को प्रमुख कार्यकर बनाकर उसकी देख-रेख में मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ करवाया ।