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:: प्राग्वाट-इतिहास :
[तृतीय
से लगती हुई भ्रमती में, एक अन्य देवकुलिका में और एक नैऋत्य कोण की शिखरबद्ध कुलिका के पीछे भ्रमती में है। शेष चतुष्क में छिपे हैं। जिनालय का चतुष्क सेवाडीज्ञाति के प्रस्तरों से बना है, जो ४८००० वर्गफीट समानान्तर है। प्रतिमाओं को छोड़कर शेष सर्वत्र सोनाणाप्रस्तर का उपयोग हुआ है। मूलनायक देवकुलिका के पश्चिमद्वार के बाहर उत्तरपक्ष की भित्ति में एक शिलापट्ट पर वि० सं० १४६६ का लम्बा प्रशस्ति-लेख उत्कीर्णित है । इससे यह समझा जा सकता है कि यह मूलनायक देवकुलिका वि० सं० १४६६ में बनकर तैयार हो गई थी और वि० सं० १४६८ तक अन्य प्रथमावश्यक अंगों की भी रचना हो चुकी थी और जिनालय प्रतिष्ठित किये जाने के योग्य बन चुका था ।
राणकपुर नगर में सं० धरणा ने चार कार्य एक ही मुहूर्त में प्रारम्भ किये थे* । सं० धरणाशाह का प्रथम महान् सत्कार्य तो उपरोक्त जिनालय का बनवाना ही है। अतिरिक्त इसके उसने राणकपुर नगर में निम्न तीन कार्य सं० धरणाशाह के अन्य और किये थे। एक विशाल धर्मशाला बनवाई, जिसमें अनेक चौक और कक्ष (ौरड़ियाँ) तीन कार्य और त्रैलोक्य- थे तथा जिसमें काष्ठ के चौरासी उत्तम प्रकार के स्तम्भ थे। धर्मशाला में अनेक दीपक-धरणविहार नामक प्राचार्यों के एक साथ अपने मान-मर्यादापूर्वक ठहरने की व्यवस्था थी। अलग जिनालय का प्रतिष्ठोत्सव
अलग अनेक व्याख्यान-शालायें बनवाई गई थीं। यह धर्मशाला दक्षिणद्वार के सामीप्य में थोड़े ही अन्तर पर बनाई गई थी। कैसे निकल आया ? त्रैलोक्यदीपक-जिनालय का वह प्रकोष्ठ जो व्यवस्थापिका पेढ़ी ने पर्वतों की ढाल से जिनालय की ओर आने वाले पानी को रोकने के लिये जिनालय से दक्षिण तथा पूर्व में लगभग एक या डेढ़ फर्लाग के अन्तर पर बनवाया है पर्याप्त लम्बा और चौड़ा है और समस्त उपत्यका-स्थल में समतल भाग ही यही है । यहाँ नगर का मध्य या प्रमुख भाग बसा होना चाहिए था। मेरी दृष्टि में तो यही उचित मालूम पड़ता है कि यहाँ साधारण ज्ञाति के लोगों का निवास था,जिनसे धरणाशाह ने भूमि खरीद कर ली या फिर वे राजाज्ञा से यह भाग छोड़ कर कुछ दूरी पर जा बसे । यह अवश्य सम्भव है कि त्रैलोक्यदीपक-जिनालय बनने के समय अथवा पीछे जैन
आबादी अवश्य बढ़ गई हो, महाराणा और श्रीमन्तों की अट्टारियाँ बन गई हों, ग्राम की रमणीकता बढ़ गई हो; परन्तु मादड़ी एक अति विशाल नगर था सत्य प्रतीत नहीं होता है। - एक कथा ऐसी सुनी जाती है कि एक दिन सं० धरणाशाह ने घृत में पड़ी मक्षिका (माखी) को निकालकर जूते पर रख ली। यह किसी शिल्पी कार्यकर ने देख लिया। शिल्पियों ने विचार किया कि ऐसा कृपण कैसे इतने बड़े विशाल जिनालय के निर्माण में सफल होगा। सं० धरणाशाह की उन्होंने परीक्षा लेनी चाही। जिनालय की जब नीचे खोदी जा रही थी, शिल्पियों ने सं० धरणाशाह से कहा की नीवों को पाटने में सर्वधातुओं का उपयोग होगा, नहीं तो इतना बड़ा विशाल जिनालय का भार केवल प्रस्तरविनिर्मित दिवारें नही सम्भाल पायेंगी। सं० धरणाशाह ने अतुल मात्रा में सर्वधातुओं को तुरन्त ही क्रय करके एकत्रित करवाई। तब शिल्पियों को बड़ी लज्जा आई कि वह कृपणता नहीं थी, परन्तु सार्थक बुद्धिमत्ता थी।
___ *'चतुरधिकाशीतिमितैः स्तंभैरमितेः प्रकृष्टतरकाष्टैः । निचिता च पट्टशालाचतुष्किकापवरकप्रवरा ॥
श्री धरणनिर्मिता या पौषधशाला समस्त्यतिविशाला। तस्यां समवासापुः प्रहर्षतो गच्छनेतारः॥ -सोमसौभाग्यकाव्य सं० धरणा का एक विशाल धर्मशाला के बनाने का निश्चय करना स्वाभाविक ही था, क्योंकि ऐसे महान् तीर्थस्वरूप जिनालय की प्रतिष्ठा के समय अनेक प्रसिद्ध आचार्यों की अपने शिष्यगणों के सहित आने की सम्भावना भी थी और ऐसे तीर्थों में अनेक साधु, मुनिराज सदा ठहरते भी हैं, अतः ठहराने की समुचित व्यवस्था तो होनी ही चाहिए। यह धर्मशाला जीर्ण-शीर्ण अवस्था में अभी तक विधमान् थी । वि० सं० २००४-५ में समूलतः नष्ट हो गई और फलतः उठवा दी गई।
यह प्रायः प्रथा-सी हो गई है कि तीर्थों में दानशालायें होती ही है। तीर्थों के दर्शनार्थ गरीब अभ्यागत अनेक आते रहते हैं तथा और फिर उन दिनों में तो दानशालायें बनवाने का प्रचार भी अत्यधिक था। अतः धर्मात्मा सं०धरणा का राणकपुरतीर्थ में दानशाला खोलने का विचार भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
परन्तु सार्थक बुद्धिमत्ता थी का तुरन्त ही कय करके एकत्रित
* चतुरधिकाशीतिमित