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खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिर तीर्थादि में निर्माण- जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा सद्गृहस्थ-सं० रत्ना-धरणा :: [ २६७
अली अथवा आड़ावला पर्वत की विशाल एवं रम्य श्रेणियाँ मरुधरप्रान्त तथा मेदपाट प्रदेश की सीमा निर्धारित करती हैं और वे मरुधर से आग्नेय और मेदपाट के पश्चिम में आई हुई हैं। इन पर्वत श्रेणियों में होकर मादड़ी ग्राम और उसका अनेक पथ दोनों प्रदेशों में जाते हैं। जिनमें देसूरी की नाल अधिक प्रसिद्ध है । कुम्भलनाम राणकपुर रखना गढ़ का प्रसिद्ध ऐतिहासिक दुर्ग, जिसको प्रतापी महाराणा कुम्भकर्ण ने बनवाया था, इसी आड़ावालापर्वत की महानतम् शिखा पर आज भी सुदृढ़ता के साथ अनेक विपद-बाधा झेलकर खड़ा है । महाराणा कुम्भकर्ण इसी दुर्ग में रहकर अधिकतर प्रबल शत्रुओं को छकाया करते थे । कुम्भलगढ़ के दुर्ग से १०-१२ मील के अन्तर पर मालगढ़ ग्राम आज भी विद्यमान है, जिसमें परमार्हत धरणा और रत्ना रहते थे । कुम्भलगढ़ से जो मार्ग मालगढ़ को जाता है, उसमें माद्रीपर्वत पड़ता है । इसी माद्रीपर्वत की रम्य उपत्यका में मादड़ी ग्राम जिसका शुद्ध नाम माद्रीपर्वत की उपत्यका में होने से माद्री था बसा हुआ था । मादड़ी ग्राम अगम्य एवं दुर्भेद स्थल में भले नहीं भी बसा था, फिर भी वहाँ दुश्मनों के आक्रमणों का भय नितान्त कम रहता था । सं० धरणाशाह को त्रैलोक्यदीपक नामक जिनालय बनवाने के लिये मादड़ी ग्राम ही सर्व प्रकार से उचित प्रतीत हुआ । रम्य पर्वतश्रेणियाँ, हरी-भरी उपत्यका, प्रतापी महाराणाओं के दुर्ग कुम्भलगढ़ का सानिध्य, ठीक पार्श्व में मघा सरिता का प्रवाह, दुश्मनों के सहज भय से दूर आदि अनेक बातों को देखकर सं० धरणाशाह ने मादड़ी ग्राम में महाराणा कुम्भकर्ण से भूमि प्राप्त की और मादड़ी का नाम बदलकर राणकपुर रक्खा । ऐसा माना जाता है कि राणकपुर* महाराणा शब्द का 'राणक' और सं० धरणा की ज्ञाति 'पोरवाल' का 'पोर,' 'पुर' का योग है जो दोनों की कीर्त्ति को सूर्य-चन्द्र जब तक प्रकाशमान् रहेंगे प्रकाशित करता रहेगा ।
विहार नामक चतुर्मुखआदिनाथ जिनालय शिलान्यास और जिना
विशाल संघ समारोह एवं धूम-धाम के मध्य सं० धरणा ने धरणविहार नामक चतुर्मुख-आदिनाथ - जिनालय की नींव वि० सं० १४६५ में डाली । इस समय दुष्काल का भी भयंकर प्रकोप था । निर्धन जनता को यह वरदान श्री त्रैलोक्यदीपक-धरण- सिद्ध हुआ। मुंडारा ग्राम के निवासी प्रसिद्ध शिल्पविज्ञ कार्यकर सोमपुराज्ञातीय देपाक की तत्त्वावधानता में अन्य पच्चास कुशल कार्यकरों एवं अगणित श्रमकरों को रख कर कार्य प्रारम्भ करवाया गया । जिनालय की नींवें अत्यन्त गहरी खुदवाई और उनमें सर्वधातु का उपयोग करके विशाल एवं सुदृढ़ दिवारें उठवाई | चौरासी भूगृह बनवाये, जिनमें से पाँच अभी दिखाई देते हैं। दो पश्चिमद्वार की प्रतोली में एक उत्तर मेघनाथ - मंडप
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लय के भूगृहों व चतुष्क का वर्णन
(४२) नरेन्द्रेण स्वनाम्ना निवेशिते तदीयसुप्रसादादेशतस्त्रैलोक्यदीपकाराणकपुर - प्रशस्ति
अनेक पुस्तकों में मादड़ी ग्राम के विषय में बहुत बढ़ा-चढ़ा कर लिखा है कि यहाँ २७०० सत्ताईसौ घर तो केवल जैनियों के ही थे । और ज्ञातियों के तो फिर कितने ही सहस्रों होंगे। ये सब बातें अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, जो मंदिर के आकार की विशालता को देखकर अनुमानित की गई हैं । लेखक श्री त्रैलोक्यदीपक - धरणविहार के शिलालेखों का संग्रह करने की दृष्टि से वहाँ ३०-५-५० से ३-६-५० तक रहा और पार्श्ववर्त्ती समस्त भाग का बड़ी सूक्ष्मता एवं गवेषणात्मक दृष्टि से अवलोकन किया । उपत्यका में मैदान अवश्य बड़ा है; परन्तु वह ऐसा विषम और टेढ़ा-मेढ़ा है कि वहाँ इतना विशाल नगर कभी था अमान्य प्रतित होता है । दूसरी बात - जीर्ण एवं खण्डित मकानों के चिन्ह आज भी मौजूद हैं, जिनको देखकर भी यह : अनुमान लगता है कि यहाँ साधारण छोटा-सा ग्राम था। विशेष सुदृढ़ शंका जो होती है, वह यह है कि अगर मादड़ी त्रैलोक्यदीपक- जिनालय के बनवाने के पूर्व ही विशाल नगर था तो जैसी भारत में बहुत पहिले से ग्राम और नगरों को संकोच कर बसाने की पद्धति ही रही हैं, इतने विशाल नगर में इतना खुला भाग
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"राणपुरनगरे राणा श्री कुम्भकर्ण(४३) भिधानः श्री चतुर्मुखयुगादीश्वरविहारः कारितः प्रतिष्ठितः