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________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रे० राहड़ : [ २२६ पाँच पुत्र हुये । देवचन्द्र के देवराज नाम का एक ही पुत्र हुआ। श्रे० वीशल और देशल दोनों धवल से छोटे भाई थे । इन दोनों भ्राताओं के कोई सन्तान नहीं हुई। श्रे० बाहड़ राहड़ से छोटा और धवल का पाँचवा भ्राता था। वह अत्यधिक जनप्रिय हुआ । उसके जिन मती नाम की स्त्री थी । जिनमती की कुक्षी ने जसडक नाम का पुत्र हुआ । श्रे० सज्जन के पाँचों पुत्रों में श्रे० राहड़ अधिक गुणी, बुद्धिमान् , सुशील, उदार, सुजनप्रिय, ख्यातनामा और बृहद् परिवारवाला हुआ । वह नित्य प्रभुपूजन करता, सविधि कीर्तन करता, साधुभक्ति करता और व्याख्यान श्रवण करता था तथा नित्य नियमित रूप से दान देता और शक्ति अनुसार तपस्या करता था। वह शीलव्रत में अडिग और परिजनों को सदा प्यार करने वाला था। राहड़ की स्त्री देमति थी, जो सचमुच ही देवमति थी। वह राहड़ को धर्मकार्य में अति बल और सहयोग देनेवाली हुई । देमति के चार पुत्र चाहड़, वोहड़ि, आसड़ और आसाधर हुये । इन चारों पुत्रों की क्रमशः अश्वदेवी, माढदेवी, तेजूदेवी और राजूदेवी नाम की स्त्रियाँ थीं, जिनसे यशोधर, यशोवीर और यशकर्ण नाम के पौत्रों की और घेउयदेवी, जासुकादेवी और जयंतुदेवी नाम की पौत्रियों की श्रे० राहड़ को प्राप्ति हुई। श्रे० राहड़ विशेषतः बुद्धिमान्, सुजन-प्रिय, सुशील धर्मात्मा एवं उदारात्मा था । वह बड़ा दानी था । धर्मपर्वो पर दान करता था । वह नित्य नियमित रूप से सविधि प्रभुपूजन-कीर्तन करता और गुरु का उपदेश श्रवण करता था । दान देना और तप करना तो उसका स्वभाव हो गया था। शीलव्रत के पालन करने में वह विशेषतः विख्यात था। जैसा वह धर्मात्मा एवं गुणी था उसकी स्त्री देमति भी वैसी ही धर्मार्थिनी, पवित्रशीलशालिनी, पतिपरायणा और निराभिमानिनी थी। दोनों पति-पत्नी अतिशय धर्माराधना करते और दुःखी एवं दीनों की सहायता करते और सुखपूर्वक दिवस व्यतीत करते थे। इनके पुत्र, पुत्रवधूयें तथा पौत्र भी वैसे ही गुणी और सदाशय थे । राहड़ के द्वितीय पुत्र वोहड़ि की मृत्यु आकस्मातिक एवं असामयिक हुई। राहड़ को इस मृत्यु से बड़ा भारी धक्का लगा और वह संसार से ही विरक्त एवं उदासीन-सा रहने लगा तथा अपने द्वारा न्यायोपार्जित द्रव्य का धर्मकार्यों में अधिकाधिक सदुपयोग करने लगा । उसको जीवन, यौवन, सुन्दर शरीर और सम्पति आदि सर्व महामेघ के मध्य में स्थित एक क्षुद्र एवं चंचल जलबिंदु से प्रतीत होने लगे । दान, शील, तप और भावनायुक्त श्री जिनेश्वर-धर्म का पालन ही एकमात्र सद्गति देने वाला है, ऐसा दृढ़ निश्चय करके उसने देवचन्द्रमूरिरचित 'श्रीशांतिनाथचरित्र' की प्रति ताड़-पत्र पर विक्रम संवत् १२२७ में लिखवाई, जिसकी प्रशस्ति श्रीमद् चक्रेश्वरसूरिशिष्य श्रीमद् परमानन्दसरि ने लिखी । इस समय अणहिलपुरपत्तन में गुर्जरसम्राट् कुमारपाल का राज्य था । राहड़ ने श्रीशांतिनाथ भ० की सत्पीतल की सुन्दर प्रतिमा विनिर्मित करवाई और उसको अपने गृहमन्दिर में प्रतिष्ठित करवाई। ___D.C.M. P. (G.0. S.VO.No. LXXVI) P. 224-7 । पृ० २२४ पर सिद्धनाग के स्थान पर सिंहनाग, अंपति के स्थान पर प्रदपिनी, पोढ़क के स्थान पर गाढ़ लिखा है । इसी प्रकार कुछ अन्य व्यक्तियों के नामों में भी अन्तर है । जै० पु०प्र० सं० पृ० ५ (शांतिनाथ-चरित्र) प्र०सं० प्र० भा० ता०प्र०११२ पृ०७१ से ७४ (श्री शांतिनाथचरित्र)
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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