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खण्ड ] :: श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण-महाकवि श्रीपाल और उसके पुत्र-पौत्र :: [२१७
(३) शनार्थकाव्य-यह अद्भुत संस्कृतग्रन्थ एक श्लोक का है। श्लोक वसंततिलकावृत्त है । इस श्लोक के सौ अर्थ किये गये हैं । अतः ग्रन्थ शतार्थ-काव्य के नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ से सोमप्रभसूरि के अगाध संस्कृतज्ञान का तथा प्रखर कवित्व-शक्ति का विशुद्ध परिचय मिलता है। जैन एवं भारतीय संस्कृत-साहित्य का यह ग्रन्थ अजोड़ एवं अमूल्य है तथा बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में भारत की साहित्यिक उन्नति एवं संस्कृतभाषा के गौरव का ज्वलंत उदाहरण है। आपने स्वयं ने उक्त ग्रन्थ की टीका लिखी हैं और चौवीश तीर्थङ्करों, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा नारदादि वैदिक पुरुषों, अपने समकालीन पुरुषबर सम्राट सिद्धराज जयसिंह, कुमारपाल, अजयपाल, मूलराज तथा आचार्य वादी देवसूरि, हेमचन्द्रसूरि और महाकवि सिद्धपाल और अपने स्वयं के ऊपर भिन्न २ प्रकार से अर्थों को घटित किया हैं।
(४) कुमारपाल-प्रतिबोध-इस ग्रंथ की रचना आपने सम्राट् कुमारपाल के स्वर्गारोहण के नव या बारह वर्ष पश्चात वि० सं० १२४१ में पत्तन में महाकवि सिद्धपाल की वसति में रहकर ८८०० श्लोकों में की थी। प्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य के शिष्य महेन्द्रसूरि तथा वर्धमानगणि और गुणचन्द्रगणि ने कुमारपाल-प्रतिबोध का श्रवण किया था। इस ग्रंथ में उन उपदेशात्मक धार्मिक कथाओं का संग्रह है, जिनके श्रवण करने से पुरुष समार्ग में प्रवृत्त होता है। प्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य ने सम्राट् कुमारपाल को कैसे २ उपदेश देकर जैन बनाया—की रूप रेखा बड़ी उत्सम, साहित्यिक एवं ऐतिहासिक और पौराणिक शैली से दी गई है।
श्रीमद् सोमप्रभसूरि व्याख्यान देने में भी बड़े प्रवीण थे। साहित्य की तथा श्रीसंघ की इस प्रकार सेवा करते हुये आपका स्वर्गवास मरुधरप्रान्त में आई हुई अति प्राचीन एवं ऐतिहासिक नगरी भिन्नमाल में हुआ |*
कविकुलशिरोमणि श्रीमन्त षड्भाषाकविचक्रवर्ती श्रीपाल, महाकवि सिद्धपाल, विजयपाल तथा श्रीपाल के गुणाव्य भ्राता शोभित
विक्रम शताब्दी दशवीं-ग्यारहवीं-बारहवीं
विक्रम की दशवीं शताब्दी से लगाकर चौदहवीं शताब्दी तक संस्कृत एवं प्राकृत-साहित्य की प्रखर उन्नति हुई और यह काल साहित्योन्नति का मध्ययुगीय स्वर्णकाल कहलाता है । धाराधीप और पत्तनपति सदा सरस्वती गर्जरसम्राटों का साहित्य के परम भक्त, कवि एवं विद्वानों के पोषक और स्वयं विद्याभ्यासी थे। जैसे वे महाप्रेम और महाकवि श्रीपाल प्रतापी, रणकुशल यौद्धा थे, वैसे ही वे तत्त्वजिज्ञासु एवं मुमुक्षु भी थे । अतः उनकी की प्रतिष्ठा
राज्य-सभाओं में सदा कवि एवं विद्वानों का सम्मान और गौरव रहा । महाप्रतापी गुर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह भी जैसा समर्थ शासक था, वैसा ही परम सरस्वती भक्त एवं विद्वानों का आश्रयदाता मी था । उसकी राज्य सभा में भी अनेक प्रसिद्ध विद्वान् रहते थे तथा दूर-दूर से विद्वान् आते रहते थे । सम्राट् सिद्धराज
*?-जै० सा० सं० इ० पृ० २८२, २८४. २-कु० प्रति० की प्रस्तावना ।