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:: प्राग्वाट-इतिहास :
[द्वितीय
करके आप पाली पधारे और वहाँ आपने अनेक विद्याओं की साधना की। उस समय आचार्य, यति, साधु विद्यासाधना करके धर्म का प्रचार करते थे। आप छोटी आयु में ही भारत के विद्या-कलाविदों में अग्रगण्य हो गये। सूचमदर्शिनी, आकाशगामिनी, अंतहितकारिणी, संहारिणी जैसी अद्भुत विद्याओं के ज्ञाता और नवनिधि और अष्टसिद्धि के प्राप्त करने वाले हो गये ।
नाडूलाई (मरुधर-प्रदेश) में जो ग्राम के बाहर श्री आदिनाथ-जिनालय है उसकी स्थापना की भी एक मनोरंजक और आश्चर्यभरी कहानी है । एक वर्ष सरिजी का नाडूलाई में चातुर्मास था। वहीं अवधूत- शिव योगी श्रीमद् यशोभद्रसूरि का नाडुलाई में चातुर्मास श्रवण करके फिर आया और अनेक विघ्न उत्पन्न करने लगा। अन्त में दोनों में वाद होना ठहरा । वाद में यह ठहरा कि वल्लभीपुर से दोनों एक २ मन्दिर उड़ाकर ले भावे
और जो मुर्गे की आवाज के पूर्व नाडूलाई में पहुँच जायगा, वही जयी हुआ समझा जायगा। योगी ने शिवमन्दिर को और यशोभद्रसरि ने श्री आदिनाथमन्दिर को उठाया और दोनों आकाशमार्ग से मन्दिरों को ले चले। सूरिजी आगे चले जा रहे थे। योगी ने देखा भौर फटने वाली है और नाइलाई अब अधिक दूर भी नहीं है, सरिजी मेरे से आगे पहुँच जावेंगे ऐसा विचार करके उसने तुरन्त मुर्गे की आवाज की। सूरिजी ने समझा कि भौर हो गया है मन्दिर को प्रतिज्ञा के अनुसार वहीं तुरन्त स्थापित कर दिया । कपटी योगी ठहरा नहीं और उसने सूरिजी से
आगे बढ़कर शिवमन्दिर को स्थापित किया। कपटी योगी के छल का पता जब सूरिजी को लगा तो उन्होंने उसके छल को प्रकाशित कर दिया। इससे योगी की अत्यन्त निंदा हुई। नाइलाई में आज भी दोनों मन्दिर विद्यमान हैं । यह घटना वि० सं०६६४ (१) की कही जाती है । वि० सं०६६६ में आपश्रीने मुंडारा और सांडेराव में प्रतिष्ठायें कीं । अनेक चमत्कारों और आश्चर्यों से सूरिजी का जीवन भरा है।
सूरिजी ने अपनी विद्याशक्ति से अनेकों के दुःख दूर किये, अनेक पाखण्डियों के पाखण्ड को खोला और भोले और अन्धश्रद्धालु भक्तों का उद्धार किया। आपके तेज, पाण्डित्य, चमत्कारों से जैन-धर्म खूब फैला । आपने अनेक
. मन्दिरों की प्रतिष्ठायें करवाई और आपने अनेक अजैन कुलों को जैन बनाया। अजनों को जैनी बनाना
गुगलिया, धारोला, कांकरिया, दुधेड़िया, बोहरा, चतुर, भंडारी, शिशोदिया आदि १२ कुलों के पुरुषों को आपने प्रतिबोध देकर जैन बनाये । गुजरात, राजस्थान, मालवा के समस्त राजा, मांडलिक, सामन्त सब आपका मान करते थे। आगटनरेश तो आपका परम भक्त था । नाडूलाई के राव लाखण के पुत्र राव द्धा को आपश्री ने प्रतिबोध देकर जैन बनाया था और उसके परिवार वाले भण्डारी कहलाये ।
ते जोगी पण लावियो सिवदेवरो मन भाय, जैनमति सिवमति बेहु दोय देहरी ल्याय ॥१२॥ ते हमणा प्रासाद छै नडुलाई सेहेर मझार, एहनी वरवण छै बहु कथा कोस विस्तार' ॥१३॥ -सोहमकुल पट्टावली
'श्री उपकेशवंशे रायभण्डारीगोत्रे राउल श्री लाप(ख)णपुत्र श्री मं० दुदवशे मं० मयूर सुत मं० साहुलः। तत्पुत्राभ्यां मं० सीदा समदाभ्यां सद्बाधव मं० कर्मसी धारा लाखादि सुकुटुम्बयुताभ्यां श्री नन्दकुल वत्या पुर्या सं० ६६४ श्रीयशोभद्ररिमंत्रशक्तिसमानीतायां मं० सायरकारितदेवकुलिकाद्धारतः'
(नाडूलाई के जैन मन्दिर के सं०१५६७ के लेख का अंश.)
प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० ३३६, ३४३. भावनगर, प्राचीन शोध-संग्रह,भाग पहला' वि०सं०१६४२ पृ०६४-६६ (Published by state press at Bhawanagar.)
वि० सं०६६८ में सूरिपद प्राप्त हुआ; अतः वि० सं०६६४ की उक्त घटना सरिपद की प्राप्ति के पूर्व हुई इससे सिद्ध होती है। परन्तु सरिपद की प्राप्ति के पश्चात् अधिक संगत प्रतीत होती है।