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खण्ड] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-सांडेरकगच्छीय श्रीमद् यशोभद्रसूरि .
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सांडेरकगच्छाधिपति आचार्य ईश्वरसूरि बड़े प्रतापी हो गये हैं। वे वि० सं० ६५१-५२ में विहार करते २ मानवप्राणियों को धर्मोपदेश देते हुए मुडारा नामक ग्राम में पधारे । मुंडारा से पलासी अधिक अंतर पर नहीं है । ईश्वरसरिकामडाराग्राम , मुंडारा में उन्होंने सौधर्म की आश्चर्यपूर्ण बाललीलाओं की कहानियाँ सुनीं। ईश्वरमरि में पलासी पाना और के पास में ५०० मुनि शिष्य थे। परन्तु गच्छ का भार वहन करने की शक्तिवाला सौधर्म की मागणी और उनमें एक भी उनको प्रतीत नहीं होता था। वे रात-दिन इसी चिंता में रहते थे कि उसकी दीक्षा।
__ अगर योग्य शिष्य नहीं मिला तो उनकी मृत्यु के पश्चात् सांडेरकगच्छ छिन्न-भिन्न हो जावेगा । सौधर्म के विषय में अद्भुत कथायें श्रवण करके उनकी इच्छा सौधर्म को देखने की हुई । विहार करते २ अनेक श्रावक और श्राविकाओं तथा अपने ५०० शिष्य मुनियों के सहित पलासी पधारे । पलासी के श्री संघ ने आपश्री का तथा मुनियों का भारी स्वागत किया । एक दिन प्राचार्य ईश्वरसूरि भी श्रे० पुण्यसागर के घर को गये और स्त्री गुणसुन्दरी से सौधर्म की याचना की। इस पर गुणसुन्दरी बहुत क्रोधित हुई; परन्तु ज्ञानवंत आचार्य ने उसको सौधर्म का भविष्य और उसके द्वारा होनेवाली शासन की उन्नति तथा साधु-जीवन का महत्व समझा कर उसको प्रसन्न कर लिया और गुणसुन्दरी ने यह जान कर कि उसका पुत्र शासन की अतिशय उन्नति करने वाला होगा, सहर्ष सौधर्म को आचार्य को समर्पित कर दिया । लगभग ६ वर्ष की वय में ईश्वरसूरि ने पलासीग्राम में ही सौधर्म को दीक्षा प्रदान की और उसका यशोभद्र नाम रक्खा।
दीक्षा लेकर यशोभद्रमुनि शास्त्राभ्यास में लगे और थोड़े ही काल में उन्होंने जैनशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके पंडितपदवी को धारण की । ईश्वरसूरि ने उनको सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतापी जानकर मुंडाराग्राम में उनको सूरिपद रिपद और गच्छ का भार से अलंकृत किया। यशोभद्रसूरि ६ विगयों का त्याग करके आंविल करते हुये विहार वहन करना। . . करने लगे और फैले हुए पाखण्ड का नाश करके जैन-धर्म का प्रभाव बढ़ाने लगे।
दुःख है ऐसे प्रभावक आचार्य के विषय में उनके द्वारा की गई शासनसेवा का विस्तृत लेखन प्राचीन ग्रन्थों में ग्रंथित नहीं मिलता है। नाइलाई के श्री आदिनाथ-जिनालय के संस्थापक ये ही आचार्य बतलाये जाते हैं। उक्त मन्दिर के वि० सं० ११८७ के एक अन्य लेख से भी सिद्ध है कि मन्दिर प्राचीन है। एक लेख में मन्दिर की स्थापना का संवत् वैसे वि० सं० ६६४ लिखा है । आपकी निश्रा में सैकड़ों मुनिराज रहते थे। सूरिपद ग्रहण
सांडेरागच्छ में हुआ जसोभद्रसूरिराय, नवसे है सतावन समें जन्मवरस गछराय ।।१।। संवत नवसे हैं अड़सठे सूरिपदवी जोय, बदरी सूरी हाजर रहे पुण्य प्रबल जस जोय ॥२॥ सवत नव अगण्यौतरे नगर मुटाडा महि, सांडेरा नगरे वली किधी प्रतिष्ठा त्यौहें ॥३॥ बुहा किन रसी बली खीम रीषिमुनिराज, जसोभद्र चोथा सहु गुरुभाई सुखसाज ॥४॥ बुहाथी गछ निकल्यो मलधारा तसनाम, किन रिसीथी निकल्यो किनरिसी गुणखान ॥५॥ खीम रिसीथीय निपनो कोखंट बालग गछ जेह, जसोभद्र सढिरगछ च्यारे गछ सनेह ॥६॥ आबू रोहाई विचे गाम पलासी माहें, विपुत्र साथे बहु भणता लड़िया त्याहे ॥७॥ खडियो भागो विप्रनो करें प्रतिज्ञा ऐम, माथानो खड़ियो करू तो ब्राह्मण सहि नेम ॥८॥ ते ब्राह्मण जोगी थई विद्या सिखी श्राय, चोमास नडलाई में हुता सरि गछराय ॥1 तिया आयो तिहिज जटिल पुरब देष विचार, बाघ सरप बिछी प्रमुख किधा कई प्रकार ॥११॥ संवत् दश दाहोतरें किया चौराशीवाद, वल्लभीपुर थी प्राणियो ऋषभदेवप्रासाद ॥११॥