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:: प्राग्वाट-इतिहास:
[द्वितीय
श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री विमलवसतिकाख्य चैत्यालय तथा हस्तिशाला में
अन्य प्राग्वाट-बन्धुओं के पुण्य-कार्य
साहिलसंतानीय परिवार और पल्लीवास्तव्य श्रे० अम्बदेव
वि० सं० ११८७
श्री अर्बुदाचलस्थ विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथजिनालय की बत्तीसवीं देवकुलिका में रुद्रसिणवाड़ास्थानीय प्राग्वाटज्ञातीय साहिलसंतानीय श्रे० पासल, संतणाग, देवचन्द्र, आसधर, आंबा, अम्बकुमार, श्रीकुमार, लोयण आदि श्रावक तथा शांति, रामति, गुखश्री और पडूही नामा उनकी बहिन-बेटियाँ और पल्लड़ीवास्तव्य श्रे० अम्बदेव आदि समस्त श्रावक और श्राविकाओं ने अपने मोक्षार्थ बृहद्गच्छीय श्री संविज्ञविहारि श्री वर्द्धमानसूरि के चरणकमलों के सेवक श्री चक्रेश्वरसूरि के द्वारा वि० सं० ११८७ फाल्गुण कृ० ४ सोमवार को श्री ऋषभदेवप्रतिमा को शुभ मुहूर्त में प्रतिष्ठित करवाया ।१
पत्तननिवासी श्रे० आशुक
अणहिलपुरपत्तन के जैन-समाज में अग्रणी कुलों में प्रतिष्ठित प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठिवर्ग में मोतीमणिसमान ऐसा श्रे० लक्ष्मण विक्रम की बारहवीं शताब्दी में हो गया है। श्रे० लक्ष्मण के श्रीपाल और शोभित नामक दो अति प्रसिद्ध एवं गौरवशाली पुत्र हुये । श्रीपाल गूर्जरसम्राट् प्रसिद्ध सिद्धराज जयसिंह का राजकवि था और राज-विद्वत्-परिषद् का वह अध्यक्ष था । इसका वर्णन पूर्व दिया जा चुका है। महाकवि श्रीपाल से छोटा श्रे० शोभित था। शोभित की स्त्री का नाम शांतिदेवी और पुत्र का नाम आशुक था । श्रे० शोभित के पुत्र आशुक ने विमलवसतिका की हस्तिशाला के समीप के सभामण्डप के एक स्तंभ के पीछे एक छोटे प्रस्तर-स्तंभ में पिता शोभित की प्रतिमा, माता शांतादेवी की प्रतिमा और अपनी प्रतिमा साथ साथ में उत्खनित करवाई और उसी प्रस्तर-स्तंभ के पृष्ठ-भाग में अपनी एक अश्वारूढ़ मनोहर प्रतिमा कोतराई। शिल्प-कला की दृष्टि से शोभित और उसके परिवार की इस छोटे-से स्तंम में कोतरी हुई प्रतिमायें अति ही मनोहर एवं आनन्ददायिनी हैं ।२
१-१० प्रा० ० ले० सं० भा०२ ले०११४ २-१० प्रा० जै• ले० सं०भा० २ ले०२३७